Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ जिनधर्म-विवेचन इसप्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मिलकर द्रव्य का निजरूप है। 'उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तं सत्, सद् द्रव्यलक्षणम्' - यह इस दर्शन की घोषणा है। ६६ अब प्रश्न यह होता है कि एक ही द्रव्य, उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यरूप कैसे हो सकता है? कदाचित् कालभेद से उसे उत्पाद और व्ययरूप मान भी लिया जाए; क्योंकि जिसका उत्पाद होता है, उसका कालान्तर में नाश अवश्य होता है; तथापि वह ऐसी अवस्था में ध्रौव्यरूप नहीं हो सकता, क्योंकि जिसका उत्पाद और व्यय होता है, उसे ध्रौव्यस्वभावी मानने में विरोध आता है। समाधान यह है कि अवस्था भेद से द्रव्य में ये तीनों माने गये हैं। जिस काल में द्रव्य की पूर्व अवस्था, नाश को प्राप्त होती है; उसी समय उसकी नई अवस्था, उत्पन्न होती है, फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वयस्वभाव बना रहता है; इसलिए प्रत्येक द्रव्य में उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य, स्वभाव से हैं - यह सिद्ध होता है। इस भाव को व्यक्त करते हुए स्वामी समन्तभद्र आप्तमीमांसा में लिखते हैं घट- मौलि सुवर्णार्थी, नाशोत्पाद- स्थितिष्वयम् । शोक प्रमोद माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ 'घट का इच्छुक उसका नाश होने पर दुःखी होता है; मुकुट का इच्छुक, उसका उत्पाद होने पर हर्षित होता है और स्वर्ण का इच्छुक, न दुःखी होता है, न हर्षित होता है, वह मध्यस्थ रहता है। एक ही समय में यह शोक, प्रमोद और मध्यस्थता का भाव, बिना कारण के नहीं हो सकता, इससे मालूम पड़ता है कि प्रत्येक वस्तु त्रयात्मक है। इस कारण द्रव्य, उत्पाद, व्यय और धौव्ययुक्त है यह सिद्ध होता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- ये द्रव्य की अवस्थाएँ हैं। द्रव्य, इनमें व्याप्त होकर स्थित है; इसलिए द्रव्य कथंचित् नित्यानित्य है । उत्पाद और (34) द्रव्य - विवेचन व्ययरूप अवस्थाओं की अपेक्षा वह कथंचित् अनित्य है और ध्रौव्यरूप अवस्था की अपेक्षा वह कथंचित् नित्य है । द्रव्य की यह नित्यानित्यात्मकता अनुभव सिद्ध है। दूसरे शब्दों में द्रव्य को गुण-पर्यायवाला भी कहा जाता है; जिसमें गुण और पर्याय हो, वह द्रव्य है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । गुण अन्वयी होते हैं और पर्याय व्यतिरेकी । ६७ प्रत्येक द्रव्य में कार्यभेद से अनन्त शक्तियों का अनुमान होता है। इन्हीं की गुण संज्ञा है; ये अन्वयी स्वभाव होकर भी सदाकाल एक अवस्था में नहीं रहते हैं; किन्तु प्रतिसमय बदलते रहते हैं । इनका बदलना ही पर्याय है। गुण अन्वयी होते हैं इस कथन का यह तात्पर्य है कि शक्ति का कभी भी नाश नहीं होता । यद्यपि ज्ञान, सदाकाल ज्ञान ही बना रहता है; तथापि जो ज्ञान, वर्तमान समय में है, वही ज्ञान, अगले समय में नहीं रहता। दूसरे समय में वह अन्य प्रकार का हो जाता है। प्रत्येक गुण अपनी धारा के भीतर रहते हुए ही प्रतिसमय अन्य-अन्य अवस्थाओं को प्राप्त होता है। गुणों की इन अवस्थाओं का नाम ही पर्याय है। इस कारण पर्याय को व्यतिरेकी कहा है। वे प्रतिसमय अन्यअन्य होती रहती हैं। ये गुण और पर्याय मिलकर ही द्रव्य कहलाते हैं। द्रव्य इनके सिवा स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। ये दोनों उसके स्वरूप हैं। इस विषय को ठीक तरह से समझने के लिए सोने का दृष्टान्त ठीक होगा - सोना, पीतत्व आदि अनेक धर्म और उनकी तरतमरूप अवस्थाओं के सिवाय स्वतन्त्र कोई पदार्थ नहीं है। कोई सोना कम पीला होता है, कोई अधिक पीला होता है, कोई गोल होता है और कोई त्रिकोण या चतुष्कोण होता है। सोना, इन सब पीतत्व आदि शक्तियों में और उनकी प्रतिसमय होनेवाली विविध प्रकार की पर्यायों में व्याप्त होकर स्थित है; सब द्रव्यों का

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