Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 28
________________ जिनधर्म-विवेचन विश्व-विवेचन ही रहते हैं। मात्र आकाशद्रव्य ही ऐसा है, जो लोक और लोक के बाहर में भी रहता है; ऐसा निश्चित ज्ञान हो जाता है। २७. यहाँ कोई प्रश्न करेगा - लोक से बाहर अनन्त आकाश है तो वहाँ जीव-पुद्गलादि पाँच द्रव्य क्यों नहीं जाते? उनके जाने में क्या बाधा है? कम से कम जीव को तो जाना ही चाहिए; क्योंकि वह सब जानता है। उत्तर - आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय के ८वें सूत्र में इसका उत्तर निम्न प्रकार दिया है - धर्मास्तिकायाभावात्। अर्थात् धर्मास्तिकाय का अभाव होने से मुक्त जीव, लोकान्त से और ऊपर नहीं जाते। इस सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में खुलासा करते हैं - 'गति के उपकार का कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्त के ऊपर नहीं है, इसलिए मुक्त जीव का अलोक में गमन नहीं होता। और यदि आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने पर भी अलोक में जीव का गमन माना जाता है तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्त होता है।' २८. प्रश्न - धर्मद्रव्य न होने से जीव का अलोकाकाश में गमन नहीं हुआ, इस कारण अधर्मद्रव्य ने मुक्त जीव के गमन को रोक दिया; इससे एक द्रव्य, दूसरे द्रव्य के कार्य में बाधा डाल सकता है; यह विषय सिद्ध होता है, तब फिर प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है - यह सिद्धान्त कहाँ रहा? उत्तर - अधर्मद्रव्य अचेतन अर्थात् जड़ है, वह न अपने को जानता है और न अन्य जीवादि को जानता है- ऐसा अधर्मद्रव्य चैतन्यस्वरूप, अनन्त वीर्यवान एवं अनन्त-अव्याबाध सुख को भोगनेवाले, सर्वोत्तम सिद्ध भगवान की गति को कैसे रोक सकेगा? अर्थात् वह सिद्ध भगवान को रोक नहीं सकता। दूसरा यह भी महत्त्वपूर्ण विषय है कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल - ये पाँच द्रव्य लोक में ही रहते हैं, ये पाँचों द्रव्य लोक के ही हैं अर्थात् लोकाकाश में रहने की पात्रता/योग्यतावाले हैं अर्थात् लोक में ही रहना, उनका अनादि-अनन्त स्वभाव है। ये द्रव्य, अपने स्वभाव के विरुद्ध कैसे कार्य करेंगे? इसप्रकार इनका गमन, स्थिति अथवा अवस्थान अलोकाकाश में होता ही नहीं - यह वास्तविक वस्तुस्थिति है; तथापि व्यवहार (उपचार) से शास्त्र में अन्य कथन भी होता है। द्रव्य, गुण एवं पर्याय की स्वतन्त्रता का विषय आगे आएगा, वहाँ से जान लेना। (१०) विश्व को जानने से और भी अधिक लाभ बताने का भाव हो रहा है। इसके समर्थन में हमें आचार्य माणिक्यनन्दि कृत परीक्षामुख ग्रन्थ का समर्थन प्राप्त हो गया है। परीक्षामुख के पंचम परिच्छेद का पहला सूत्र तथा उसकी टीका इसप्रकार है त अज्ञाननिवृत्तिहानोपादानोपेक्षाश्च फलम्।।१।। अर्थात् अज्ञान की निवृत्ति, हान, उपादान और उपेक्षा - ये प्रमाण के फल हैं। फल दो प्रकार का होता है ह्न १. साक्षात् और २. परम्परा । वस्तु को जानने के साथ ही तत्काल मिलनेवाला साक्षात् फल होता है। पहले किसी प्रमाण से न जानी हुई वस्तु को जब हम जानते हैं, तब तत्काल ही उस विषय-सम्बन्धी अज्ञान दूर होता है; यही अज्ञान की निवृत्तिरूप साक्षात् फल है। जो फल तत्काल न मिलकर, कालान्तर में मिलता है, वह परम्परा फल होता है। वह हान, उपादान और उपेक्षा के भेद से तीन प्रकार का है। १. जानने के पश्चात् अनिष्ट या अहितकर वस्तु का त्याग करना, हान है। २. इष्ट या हितकर वस्तु का स्वीकार करना उपादान है। ३. जो पदार्थ न हितकर है, न अहितकर; उन्हें जानने पर न ही उनका ग्रहण करना और न ही उनका त्याग करना; उनके प्रति सहज उदासीन रहना ह्न यह उपेक्षा है।" (28)

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