Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 30
________________ जिनधर्म-विवेचन अथवा विरोध होता ही नहीं है - यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। ३१. प्रश्न - अनन्त ज्ञानियों के तात्त्विक कथन में परस्पर विरोध क्यों नहीं आता? अनेक लोगों के कथन में परस्पर विरोध आना स्वाभाविक ही है - ऐसा हमें लगता है। उत्तर - अनन्त ज्ञानियों के कथन में विरोध न आने का वास्तविक/ सच्चा कारण यह है कि वे स्वतःसिद्ध, अनादि-अनन्त वस्तु-व्यवस्था को जैसी है, वैसी ही कहते आये हैं; क्योंकि उन्होंने वस्तु-व्यवस्था का कथन किया है, वस्तु-व्यवस्था को बनाने का कार्य नहीं किया है। ___यदि कोई वस्तु-व्यवस्था का कथन अपनी मति-कल्पना से करेगा तो वह नियम से असत्य ही होगा। जिनधर्म की परम्परा में वस्तु का कथन, जैसी वस्तु है, वैसा ही किया गया है; अतः अनन्त ज्ञानियों के तात्त्विक कथन में विरोध कभी आ ही नहीं सकता। ३२. प्रश्न - 'गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं' - यह परिभाषा, कितने द्रव्यों पर लागू होती है और कितनों पर लागू नहीं होती? उत्तर - द्रव्य की उक्त परिभाषा जाति-अपेक्षा जीवादि सभी छह द्रव्यों पर और संख्या की अपेक्षा सभी अनन्तानन्त द्रव्यों पर लागू होती है। इस विश्व में ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं है, जिस पर द्रव्य की यह परिभाषा लागू नहीं होती हो। मैं भी एक जीवद्रव्य हूँ, अतः मुझ पर भी द्रव्य की यह परिभाषा लागू होती है, क्योंकि मैं भी स्वयं अनन्त गुणों का समूहरूप जीवद्रव्य हूँ। ३३. प्रश्न - विश्व की परिभाषा में 'छह द्रव्यों का समूह' और द्रव्य की परिभाषा में 'गुणों का समूह' - ऐसा आया है। यहाँ 'समूह' शब्द का अर्थ दोनों जगह एक समान है या अलग-अलग? उत्तर - दोनों परिभाषाओं में आए समूह शब्द का अर्थ एक समान न होकर अलग-अलग है। विश्व की परिभाषा में समूह शब्द का अर्थ द्रव्य-विवेचन पृथक्-पृथक् वस्तुओं के संयोगों को बताना है। जैसे - किसी कमरे में मेज, कुर्सी, पलंग, अलमारी एवं अन्य वस्तुएँ, संयोगरूप से एक स्थान में पायी जाती हैं; उसीतरह आकाश में सर्व द्रव्य रहते हैं। लेकिन विशेष दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक द्रव्य की सत्ता स्वतन्त्र है और प्रत्येक द्रव्य का क्षेत्र भी भिन्न-भिन्न है। ___ द्रव्य की परिभाषा में आया हुआ समूह शब्द गुणों में परस्पर तादात्म्य सम्बन्ध बताता है, एकरूपता को सिद्ध करता है। गुणों के समूहरूप द्रव्य में से हम किसी एक गुण को अन्य गुणों से या गुणों को द्रव्य से भिन्न नहीं कर सकते, यही गुणों का तादात्म्यपना है। जैसे - पुद्गल में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि अनेक गुण हैं; उनमें से एक गुण को द्रव्य में से अथवा अन्य गुणों से भिन्न नहीं किया जा सकता। इसीप्रकार जैसे - जीवद्रव्य में ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा आदि अनेक गुण हैं; उनमें से किसी एक गुण को हम जीवद्रव्य में से अथवा उसके अन्य गुणों से पृथक् नहीं कर सकते। देखो, भेदनय से द्रव्य में रहनेवाले अनन्त गुणों में से किसी एक गुण को बुद्धि-बल द्वारा अलग करके उस गुण के सम्बन्ध में अधिक जानने अथवा कथन करने का कार्य तो हम-आप कर सकते हैं। जैसे - श्रद्धागुण की पूर्ण एवं निर्मल क्षायिक सम्यक्त्वरूप पर्याय, चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक कहीं पर भी प्रगट हो सकती है। लेकिन ज्ञान, चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक सम्यक् तो होता है, लेकिन ज्ञानगुण की पूर्ण एवं निर्मल क्षायिक केवलज्ञानरूप पर्याय सयोगकेवली नाम के तेरहवें गुणस्थान में ही प्रगट होती है। ३४. प्रश्न - द्रव्य का कर्ता अथवा द्रव्य को बनानेवाला कौन है? उत्तर - इस प्रश्न का समाधान विश्व की व्याख्या करते समय भी किया गया है कि जीवादि प्रत्येक द्रव्य अनादि-अनन्त स्वतःसिद्ध है; अतः इनका कोई कर्ता-धर्ता नहीं है। (30)

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