Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 23
________________ जिनधर्म-विवेचन है; इसलिए उसे तो भगवान की सच्ची भक्ति हो ही नहीं सकती। ज्ञानी अर्थात् सम्यग्दृष्टि होने पर ही सच्ची भक्ति होती है। ऐसा जानना चाहिए। जब तक भगवान का सच्चा स्वरूप समझ में नहीं आएगा, तब तक ऐसा ही चलता रहेगा, इसलिए भगवान का सच्चा स्वरूप समझ में आने पर भगवान के सम्बन्ध में सच्ची भक्ति प्रगट हुए बिना नहीं रहती; क्योंकि सभी गलत प्रवृत्तियों का अभाव एकमात्र ज्ञान से ही होता है। अतः सत्य का स्वरूप समझना ही एकमात्र उपाय/साधन है। (३) धर्म अर्थात् वीतरागता, शुद्धि एवं रत्नत्रय प्रगट करने का यथार्थ पुरुषार्थ क्या है? - यह समझ में आ जाता है। आज तक मन में यह भ्रान्ति थी कि भगवान को प्रसन्न करने पर भगवान मेरा काम कर देते हैं - ऐसा चिन्तन मुख्य होने के कारण धर्म का उपाय करने में भगवान के भरोसे रहने की भावना निहित रहती थी; लेकिन जब से यह समझ में आया कि - “किसी का अच्छा-बुरा करनेवाला कोई भगवान नहीं है। भगवान तो वीतरागी (उनके जीवन में किसी के सम्बन्ध में न प्रेम-राग है और न द्वेष) हैं और सर्वज्ञ तो हैं ही; इसलिए अब मेरे सब काम मेरी जिम्मेदारी पर ही हैं; अतः अब धर्म करने के लिए मैं पूर्ण स्वतन्त्र हूँ।" - इस परिपक्व निर्णय के कारण जीवन की दिशा ही बदल जाती है। जीवन की दिशा बदल जाने के कारण अब दुःखमय संसारदशा में रखड़ते नहीं रहना है, सुखरूप मोक्षमार्ग में अग्रसर होते हुए मोक्ष की प्राप्ति करना है - ये सब कार्य मैं जैसे करूँगा, जो करूँगा, वही होगा - ऐसा ज्ञान भी शास्त्राधार से हो जाता है। __अब इस ज्ञान के आधार से अर्थात् ज्ञान के ही बल से श्रद्धा की विपरीतता को हटाने का अर्थात् सम्यक्त्व-प्राप्ति का अनुपम कार्य करना चाहिए । मनुष्य जीवन में करने लायक वास्तविक यही एकमात्र कार्य है। सम्यक्त्व ही धर्म का मूल है। यथार्थ तत्त्वज्ञान का स्वीकार किये बिना विश्व-विवेचन सम्यक्त्व नहीं होता; इसीलिए सम्यक्त्व की प्राप्ति के आवश्यक कारणों में देशनालब्धि अर्थात् तत्त्वज्ञान की प्राप्ति को सम्मिलित किया गया है। (४) लौकिक एवं पारलौकिक जीवन में परावलम्बन का नाश होकर, स्वावलम्बन प्रगट होता है। अब, जहाँ भगवान के अवलम्बन की बात भी छूट गई अर्थात् एक दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माने जानेवाले भगवान भी हमारे स्वयं के पुरुषार्थ बिना कुछ कार्यकारी नहीं है - ऐसा निर्णय होने पर अब, अन्य किसकी अपेक्षा रखना? इस कारण स्वयं ही पुरुषार्थ/प्रयत्न करने का एकमात्र मार्ग शेष रह जाता है - ऐसी जागृति जीवन में प्रगट होती है। इसके उदाहरण अनन्त सिद्ध भगवान हैं। क्या किसी जीव को सिद्ध भगवान बनने के लिए अन्य किसी जीव ने कभी मदद की है? जो-जो सिद्ध भगवान बने हैं, वे सब अपने स्वयं के पुरुषार्थ से ही बने हैं। जो दुःखमय संसार में भटक रहे हैं, वे अपने ही अपराध से अथवा पुरुषार्थ की हीनता से संसार में रखड़ रहे हैं। ___ इस वर्तमान काल के आदि तीर्थंकर भगवान आदिनाथ/वृषभनाथ जिनेन्द्र ने भी रिश्ते में स्वयं का पोता और भगवान महावीर के जीव, मारीचि को कहाँ सहयोग दिया था? जब मारीचि के जीव ने स्वयं अपना आत्मोद्धार शुरू किया, तब उनकी किसने मदद की थी? यहाँ कोई कह सकता है कि चारणऋद्धिधारी मुनिराज ने शेर के भव में महावीर के जीव को उपदेश तो दिया था न? ___ इसका उत्तर भी स्पष्ट है - उपदेशरूप उपकार तो तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान ने भी किया था। लेकिन आत्मोत्थान का कार्य कहाँ हुआ? हुआ ही नहीं । जब जीव स्वयं पुरुषार्थ करता है, तब ही तदनुसार कार्य होता है। उसी समय जो अन्य अनुकूल उपदेश आदि होता है, उसे ही निमित्त कहते हैं। इसप्रकार के हजारों दृष्टान्त शास्त्र में पढ़ने को हमें मिल जाते हैं। (23)

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