Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 02
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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ऋग्वेद की विदुषी नारियाँ / 369
'गृहिणी गृहमुच्यते' अर्थात् नारियों का गृहस्थी में महत्त्वपूर्ण स्थान है। दम्पत्ति' शब्द में गृहस्वामी तथा गृहस्वामिनी दोनों का सन्निवेश है। यह पुरुष और नारी के समान अधिकारों को दर्शाता है। अग्रिहोत्रादि' वैदिक कर्म सपत्नीक ही करना आवश्यक था। आचार्य सायण 'ऋग्वेदभाष्य भूमिका' में कहते हैं कि प्राचीनकाल में स्त्री-समाज सन्ध्या-वन्दन, अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-कर्म की उसी प्रकार अधिकारी थीं जैसे पुरुष वर्ग था। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने भी इस बात का समर्थन किया है। इसी कारण ब्रह्मवादिनी ऋषिकाओं के दर्शन हमें ऋग्वेद में होते हैं, जो आध्यात्मिक ज्ञान एवं वेद के रहस्यों की ज्ञाता थीं। नारी को समाज में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था। इन्द्राणी अपने सूक्त में स्त्रियों की सम्मानजनक स्थिति, अधिकारों एवं सेनानी के रूप का वर्णन करती है। ब्रह्मवादिनी रोमशा अध्यात्म का उपदेश देती है।
वाक् आम्भृणी के वाक्-सूक्त में वाक्-तत्त्व का शास्त्रीय विवेचन है जो भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। श्रद्धा सूक्त' श्रद्धा के महत्त्व के कारण मनोवैज्ञानिक रूप से सारगर्भित है। 'सूर्या-सावित्री सूक्त' विवाह की प्राचीनतम पद्धति के कारण सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार उर्वशी और पुरूरवा का इतिहास में संवाद' नारी के माध्यम से इतिहास में संवाद शैली का प्रारम्भ मान सकते हैं, जो संभवतः नाटक परम्परा का प्रारम्भिक रूप होगा। यह दृष्टान्त स्वत: सिद्ध है कि नारी का समाज में न केवल सम्माननीय, गौरवपूर्ण एवं पुरुष के समकक्ष स्थान था, वरन् वह आध्यात्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक दृष्टि से भी सक्षम थी।
सन्दर्भ: 1. ऋग्वेद 9.51.83; 10.125.1-8 2. अथर्ववेद 6.122.5 3.ऋग्वेद 10.191.1-4 4.बृहद्देवता 2.84-86 5. बृहद्देवता शौनक, आर्षानुक्रमणी 10.82 पौलोमी शची नाम मुनिः स्मृतः। 6. ऋग्वेद 5.28: 6.96; 10.5.28; 10.9.104; 10.1.126; 10.39; 10.151; 10.189 7. शौनक, बृहद्देवता, 2.82-84, आर्षानुक्रमणी, 10,100-102 (के समान है) 8. ऋग्वेद 10.39.14; 10.40.1-14 १. ऋग्वेद 10.134.6-7 10. ऋग्वेद 5.28.16 11. ऋग्वेद 8.91.1-7 12. यह 'प्रधारयन्तु मधुनोधृतस्य' से प्राप्त 1-7 ऋचाओं के खिलसूक्त की द्रष्टियाँ है। 13. यह 'प्रधारयन्तु मधुनोधृतस्य' से प्राप्त 1-7 ऋचाओं के खिलसूक्त की द्रष्टियाँ है। 14. ऋग्वेद 10.109.1-7 15. ऋग्वेद 10.60.6; आर्षानुक्रमणी 10.24 16. ऋग्वेद 4.18.4-7 17. ऋग्वेद 10.86.1-23, 10.145.1-6 18. ऋग्वेद 10.153.1-5, आर्षानुक्रमणी 10-79 19. ऋग्वेद 10.108.2,4,6,8,10,11 20. ऋग्वेद 1.126.7 21. ऋग्वेद 10.95.2,4,5,7,11,13,15,16,18 22. ऋग्वेद 1.179.1-2 23. ऋग्वेद 3.33.4,6,8,10 24. ऋग्वेद 10.10.1,3,5-7,9,11,13