Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 02
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan

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Page 151
________________ ऋग्वेद की विदुषी नारियाँ / 367 मानवीय जीवन को नियन्त्रित, मर्यादित और परिष्कृत करना है. जिस प्रकार सृष्टि अपनी नियमबद्धता, क्रमबद्धता से मर्यादित है। उसे ऋषियों ने ऋत् कहा। यज्ञ देवताओं के निमित्त द्रव्य का त्याग है । यज्ञ देवों और मृत्यों के मध्य समन्वय का प्रतीक है। चूंकि नारी सहधर्मिणी थी, अत: संयुक्त रूप से यज्ञानुष्ठान का अधिकार प्राप्त था। विदुषी विश्ववारा हविष द्वारा प्रतिदिन यज्ञ करती थी। ब्रह्मजाया जुहू यज्ञ के सम्बन्ध में कहती हैं, स्तुत्य (उरुगाय) यज्ञ पृथिवी के अमृतमय रस (ऊर्जा) को परस्पर बाँटकर उपभोग करने का माध्यम है।80 अपाला81, घोषा 2 और वाक3 के अनुसार देवता स्वयं हवि देने वाले यजमान के घर पहुँचते हैं। शची पौलोमी यज्ञ को सभी प्रकार के अभिलषित को प्राप्त करने का साधन मानती हैं।84 ऋग्वेद में विश्ववारा का अग्निसूक्त, जिसमें गृहस्थ के घर प्रात:काल में होने वाले यज्ञ में गृहवधू घृतका स्त्रुवा लेकर देवों की वन्दना में अग्नि की ओर उन्मुख होती है तथा अग्नि एवं अन्य देवताओं को हवि प्रदान करती है, अन्यतम सूक्त हैं। घोषा अश्विनी देवों को उषाकाल और रात्री में हव्य देने का उल्लेख करती हैं। सोमयाग का विस्तृत वर्णन सिकता-निवावरी एवं शिखण्डिनी द्वय के मन्त्रों में हुआ है। 6 पति-पत्नी द्वारा सम्मिलित रूप से किया यज्ञ सौम्यता का प्रतीक है और श्रेष्ठ शक्ति दाता है। धार्मिक कृत्यों में मुख्यत: यज्ञ कार्य सम्पादन में आगे रहें और सहयोग करें। वैदिक काल में स्त्री को यज्ञ सम्पादन और मन्त्रपाठ का पूर्ण अधिकार था। __ प्रकाशित दिव्य शक्तियाँ जो सृष्टि व्यवस्था की संचालक, मनुष्य के योग क्षेम की साधक शुभ के द्योतक देव या देवता हैं। यास्क के अनुसार अन्न, धन प्रदान करने वाले, चमकते हुए प्रकाशमान धुलोक में निवास के कारण देव हैं।87 इन दिव्य शक्तियों का देवता के रूप में वर्णन नारी समाज ने भी किया है। अग्नि ऋग्वैदिक काल का प्रमुख और प्रथम, पृथिवीस्थानीय, यज्ञ का नियामक देव है। विश्ववारा, आत्रेयी, अग्नि के तेज, द्युम्न, मह का वर्णन करती है। वरन् यज्ञ के अवसर पर ऋत्विक का कार्य भी करती है। 8 अग्नि की लपटें अपने तेज से शोभायमान हैं । जुहू ब्रह्मजाया को देवों के आह्वाता एवं मनुष्यों के यज्ञ सम्पादक अग्नि बृहस्पति के समीप लाते हैं। विश्ववारा आत्रेयी सूर्या-सावित्री91 पृथ्वी लोक की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले, यज्ञ नियामक अग्नि की वन्दना करती हैं। युद्ध के देवता पराक्रमी इन्द्र की स्तुति अपाला, अदिति, इन्द्राणी, इन्द्रमातरः, वसुक्रपत्नी, सरमा आदि ऋषिकाओं ने की है। मन्त्र द्रष्टा अपाला ने त्वग् दोष से मुक्ति के लिए इन्द्र की आराधना की। इन्द्र को प्रिय सोमरस अर्पित कर सूर्य के समान दीप्तिमान त्वचा को प्राप्त किया। वीरता, साहसजन्य कार्य, उर्वरता प्रदान करने वाला, आकाश के जल को पृथ्वी पर लाने वाले, सोमरस पायी इन्द्र अद्वितीय है, इसलिए इन्द्राणी अपने पति इन्द्र को देवों में सर्वोपरि बताती हैं।92 अश्विनी युगल देवता लोककल्याणकारक और मंगल करने वाले हैं इसीलिए इन्हें 'शुभस्पती 95 शुभ के स्वामी कहा गया है। यह चिकित्सक भी हैं। विश्पला को लोहे का पैर प्रदान करने वाले, वध्रिमति का सुखपूर्वक प्रसव कराने वाले हैं। राजदुहिता घोषा अश्विनी द्वय के करूणहृदय, परोपकारी, सौभाग्यदाता, उद्धारकर्ता, होने के कारण उनकी स्तुति में रत दिखाई देती हैं। लोककल्याणी दायक इतने मन्त्र केवल घोषा ने ही गाये हैं।4 ऋग्वेद में सोम भी एक महत्त्वपूर्ण और प्रिय देवता है। शिखण्डिनी द्वय का पूर्ण सूक्त एवं सिकता-निवावरी के दस मन्त्र सोम देव को समर्पित हैं। सूर्या-सावित्री के विवाह सूक्त में वर रूप में सोम देवता पूजित हैं। सोम रस यज्ञों में देवताओं को अर्पित किया जाता है । ऋग्वेद में सोम का भौतिक रूप ही मुख्य विषय है। ऋषिका सार्पराज्ञी का सूक्त सूर्य देवता को समर्पित है। साथ ही सूर्य पुत्री, सूर्या, ब्रह्मजाया जुहू, नदी, रात्री, दक्षिणा आदि मन्त्र द्रष्टाओं ने भी सूर्य की महिमा गाई है। सूर्य प्रतिदिन इस सृष्टि के जीवन दाता है। सूर्य देवता का उत्तम तेज वरणीय है। वह मेघों के लिए अपने सहस्र हाथों (किरणों) से जल एकत्र करता है। साथ ही नैतिक नियमों के अधिष्ठाता और व्यवस्था के संरक्षक देवता वरूण ने ब्रह्मजाया जुहू को पति प्राप्त करने में पूर्ण समर्थन दिया। स्त्री ऋषियों ने वरूण का उल्लेख प्रायः मित्र के साथ किया है। सूर्या के विवाह-सूक्त में भग, अर्यमा और पूषा का वर्णन है।6 मरुत् देवता के साथ अपनी मैत्री का उल्लेख इन्द्राणी करती है।97

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