Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 02
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan

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Page 152
________________ 368 / Jijñāsā ___ऋत् की अवधारणा ऋग्वेद का मूल है। इस सृष्टि के शाश्वत् नियम को देखकर ही तत्त्व द्रष्टा ऋषियों ने समाज और मानव जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए वर्णाश्रम धर्म द्वारा नियमबद्ध बनाया। देवता ऋत् के पालक और रक्षक हैं। जलों की उत्पत्ति ऋत से हुई है। नदियाँ अपने सतत प्रवाह में ऋत की नियामक है।98 ब्रह्मवादिनी सूर्या सत्य और ऋत् को ही गृहस्थ जीवन का मूल मानती हैं। पति के साथ यज्ञ द्वारा वह सृष्टि के संचालन में सहयोगी हैं।99 ऋत का पालन ही धर्म है। इसी प्रकार पाप-पुण्य की अवधारणा का बीज भी हमें ऋग्वेद में मिलता है। निर्दोष पत्नी के गृहत्याग करने से बृहस्पति भी पाप के भागी हैं। 100 सहोदरा भगिनि से सम्बन्ध रखने वाला भी पाप का भागी होता है।101 देवों से पापमुक्ति की प्रार्थना की गई है। इसी के साथ ऋग्वेद में लोकोपकार, गृहस्थधर्म का पालन, श्रद्धापूर्वक यज्ञ, दान, सदाचार, सत्य और तप, माता-पिता का सम्मान, आचार्य देवता के समान श्रद्धा का पात्र आदि सुकृत कार्य हैं। दक्षिणा सूक्त दान के महात्म्य को दर्शाता है। ऋवेद के दसवें मण्डल में यज्ञ और ज्ञान का आधार श्रद्धा को ही माना है। 02 तप को वैदिक युग में अन्त:शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय माना है। यह आकाश की ऊँचाई तक ले जाने वाला है।105 इस महान् तप के द्वारा ही ऋषि, ऋषिकाओं ने मन्त्रों का दर्शन किया। पितृलोक, स्वर्गलोक की प्राप्ति तप से होती है।104 यमी वैवस्वती मृत्यु के पश्चात् भी जीवन की सत्ता पर विश्वास करती है कि देहरहित आत्मा उन लोकों में निवास करती है, जहाँ हमारे पुण्यकर्मा पितर योद्धा, वीर, तपसाधना में रत ऋषिगण गये हैं।105 मानव इस लोक और परलोक दोनों में सुख प्राप्ति के लिए धर्मानुसार आचरण करता है।106 यह प्रवृत्तिवादी दृष्टिकोण ऋषिकाओं के मन्त्रों में भी है इसीलिए उनके मन्त्रों में स्वर्ग की कल्पना है।107 मन्त्र द्रष्टा दक्षिणा का मत है कि दक्षिणा देने वाले धुलोक में उच्च स्थान पाते हैं। 108 दृश्य के पीछे अदृश्य की खोज. शाश्वत सत्यों से साक्षात्कार ऋषियों की जिज्ञासा का प्रिय विषय था। इन दार्शनिक विषयों में स्त्री ऋषियों ने भी योगदान दिया। विदुषी वागाम्भृणी ने वाक् सूक्त में प्रकृति की शक्तियों को संचालित करने वाली एक सर्वव्यापी सत्ता या शक्ति का वर्णन करती हैं। 109 इन तत्त्ववादिनियों के समक्ष किसी एक आध्यात्मिक शक्ति, जो सम्पूर्ण सृष्टि को चलायमान बनाती है, की ओर ध्यान आकर्षित करती है जैसे- पदं यदस्य परमे व्योमन्,110 द्यावापृथिवी आ विवेश,111 स विश्वा भुव आभुव:112 । यहाँ परम तत्त्व के लिए ब्रह्म शब्द नहीं है, किन्तु सार्वभौम सत्ता की ओर इंगित करते हैं। मनुष्य का आन्तरिक सत् आत्मा है, जिसका स्पष्ट उल्लेख उपनिषदों में है। इस आत्मा की अभिव्यक्ति स्त्री ऋषियों के मन्त्रों में भी है। दक्षिणा के रूप में अश्व, गौ, सुवर्ण, रजत, अन्नादि का दान करता है। वह आत्मतत्त्व का ज्ञाता विद्वान दक्षिणा के आवरण से समस्त दुःखों, कष्टों और विघ्नों का निवारण करने वाला बना लेता है। 13 सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में अदिति का देवोत्पत्ति सूक्त महत्त्वपूर्ण है। वैदिक आर्य ने भौतिक सुख समृद्धि की कामना के साथ दिव्य तत्त्वों की चिरन्तनता एवं नित्यता को कभी विस्मृत नहीं किया। निष्कर्षत: ऋग्वैदिक काल में न केवल पुरुष और नारी को समाज में समान अधिकार प्राप्त थे वरन् इन ऋषिकाओं के अतिरिक्त ऋग्वेद में देवी के रूप में प्रतिष्ठित नारी-जाति भी है। अदिति, पृथिवी, सीता, उषस्, रात्री, वाक्, पुरन्ध्रि, सुमति, राका, कुहू आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अदिति का वर्णन सर्वप्रथम देवी के रूप में है, जो देवताओं की माता है। अदिति को स्वर्ग, अन्तरिक्ष, माता, बहिन, पुत्री के रूप में स्वीकार कर उसकी सत्ता को असीमित रूप में ही पाते हैं । सार्वभौम सत्ता के रूप में नारी को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित पाते हैं। ऋग्वेद में ही अम्बितमे, नदीतमे, देवितमे, सरस्वती देवी का वर्णन है, जो संसार में अपने सतत जल प्रवाह के साथ यश, प्रतिष्ठा और विद्या को देने वाली है। यह नारी के प्रतीक रूप में सरस्वती की प्रशंसा है। अन्य नारी देवियों में सुभ्रता, अक्षुमति, निर्ऋति, अनुमति, अरण्यानी, वरूणानी, अग्न्याणी आदि यद्यपि सम्पूर्ण रूप से लोक की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, क्योंकि भावात्मक अभिव्यक्ति है। इन देवियों के स्त्री रूप में वर्णन वैदिक जनों का नारियों के प्रति सम्मान और मान्यता प्रदर्शित है। स्पष्टत: ऋग्वैदिक युग में नारी समाज का वैशिष्ट्य पूर्ण स्थान था। इन्हें शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास के अवसर प्राप्त थे, जिससे वे आत्मविकास के मार्ग में पुरुषों के समकक्ष थीं। ऋग्वेद में पुत्री पिता की दीर्घायु का कारण है।

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