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380 / Jijnasa
आदि मानव ने जल की अनिवार्यता को समझकर उसके आस-पास ही रहना प्रारम्भ किया। प्राचीन काल में नगर ग्राम की बसावट पानी की सुविधा को देखकर ही की गई। विश्व इतिहास के अनुसार सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास नदी घाटियों में ही हुआ।
मारवाड़ में पानी के अभाव का एक महत्त्वपूर्ण भौगोलिक कारण यह है कि यह प्रदेश समुद्र से बहुत दूर है। मानसून के उद्गम एवं बहाव से भी काफी दूर पड़ता है। इसलिये यहां वर्षा बहुत कम होती है। पेड़-पौधों के जंगलों की बजाय यहां रेत के टीबे बहुत है, इसके कारण मानसून को आकर्षित करने की क्षमता भी इस प्रदेश के वातावरण में कम रहती है। इसीलिये अनुमानत: मारवाड़ में वर्षा का औसत केवल 31 मिलीमीटर रहता है। नदी के नाम पर यहां केवल लूनी नदी है जो वर्षा काल में ही प्रवाहित रहती है, निरन्तर नहीं बहती। कम वर्षा एवं नदी नालों के अभाव के कारण यहां पर भूमिगत जल स्रोत भी अत्यन्त गहरे हैं। इसीलिये कहा गया है कि
“खग धारां थोड़ो नरां, सिमट भर्यो सहपाण।
इण थी मरुधर तरल जल, पाताळा परवाण।।" इतने गहरे कुएं कि अर खड़े होकर देखने पर पानी दिखाई नहीं देता वरन् अंधेरा दिखता है। “पाताळा परवाण” मानो पाताल फोड़कर पानी निकला हो।
इस जीवनदायी दुर्लभ्य तत्व के लिये भिन्न-भिन्न स्तर से किये गये प्रयास एवं सुरक्षा व्यवस्था के साथ ही बूंद-बूंद से घट भरने की भावना प्रखर रहती है। वर्षा के प्रति आकर्षण के कारण जनजीवन मे सदा पानी के लिये पिपासा रहती रही है। इसके कारण लोकजीवन एवं लोक भाषा में अनेक मुहावरे और लोकोक्तियाँ बनी तथा लोकगीत बनें-पाणी काडणौ--गहरी खुदाई करना। पांणी चढ़णों पानी का स्तर पर होना। पांणी-छूटणी - जल प्रवाहित करना। पांणी तोड़णौ=कुऐं के जल से रिक्त करना। पांणी में खोज काड़णौ-गहरी जांच करना। पांणी रो आसरौ केवल पानी पर जीवन निर्वाह। पाणी पीदे बैठणौ कुएं का पानी समाप्त होना, बर्बाद होना। ___ वर्षा के विरह में संवत् 1956 के अकाल की विभीषिका का वर्णन कवि अरदान लालस ने अपने आर काव्य में किया है। पानी के बिना-जीवों की क्या हालत हुई यथा:
“सूनी ढांणी में सेठाणी सोती। रैगी बिणियांणी पाणी नै रोती।। मुखड़ो कुम्हळायौ भोजन बिन भारी। पय पय कर तोड़ी, पोढी पिय प्यारी। बादळ बीजळियां नभ में नर्हि नैड़ी। भेजी भणजायौ भळकी पुल भैड़ी।। खाली जळ धरथी जळधर जळ खूटौ। तत खिण जीवण बिन जग जीवण लूटौ।।
भैस्यां रिड़कै नै गायां रंभावै।
प्रांणी तिरखातुर पांणी कुण पावै।' और जब थोड़े से बदल कहीं दिख जाये तो उल्हास की लहर उठ जाती है। तुरन्त उसका आह्वान
"मेह बाबा आजा- घी नै बाटी खा जा"