Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 02
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan

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Page 211
________________ भारत में महिला श्रमिक : दशा एवं दिशा / 427 संगठित क्षेत्र में महिला श्रमिकों की संख्या पुरूष सहकर्मी की तुलना में 4.5 गुणा कम है। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि संगठित क्षेत्र आज भी आम महिला कामगार के पहुँच से बाहर है। क्योंकि 21वीं सदी के भारत में आज भी संगठित क्षेत्र में महिलाएं पुरूषों की तुलना में 450 प्रतिशत कम रोजगार पा रही हैं। संगठित क्षेत्र के लिए शिक्षा, प्रतिस्पर्धा स्तर, गुण, प्रशिक्षण, नेतृत्व क्षमता जैसी विशेषताओं की आवश्यकता होती है। जो कई कारणों से महिलाओं में पुरूषों के तुलना में विकसित हो पाए हैं। जिसके कारण इनकी पहुंच से ये क्षेत्र आज भी कोसों दूर हैं। आज भी व्यावसायिक, तकनीकी शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी आशा के विपरीत बहुत कम है। लेकिन धीरे-धीरे महिलाएँ इस ओर मुखातिब हो रही है; यद्यपि असंगठित क्षेत्र में देश का अधिसंख्यक श्रमिक रोजगार पाता है। बावजूद इसके यहाँ भी पुरूष का प्रतिशत 2.3 गुणा अधिक है। इन क्षेत्र में महिलाएं अभी भी बराबर की स्थिति में नहीं आई हैं। ये वे क्षेत्र हैं जहाँ रोजगार प्राप्त करने के लिए न्यूनतम हुनर स्तर को प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। बावजूद इसके इस क्षेत्र में इनकी भागीदारी पुरूषों के तुलना में 200 प्रतिशत कम है। यद्यपि यहाँ महिलाएँ संगठित क्षेत्रों की तुलना में 167 प्रतिशत (1.67 गुणा) अधिक है। क्या इस बात का यह अर्थ निकाला जा सकता है कि संगठित क्षेत्र में आने वाली प्रायः उच्च एवं मध्य वर्ग की महिलाओं की तुलना में आज भी निम्न वर्ग की महिलाओं को ज्यादा काम करने की स्वतंत्रता प्रदान है? यद्यपि यह उसके परिवार पर पड़ने वाले आर्थिक दबाव के कारण होता होगा। बावजूद इसके वह दूसरे वर्गों संपन्न महिलाओं की तुलना में काम करने के लिए ज्यादा स्वतंत्र है। देश के कुल श्रमिकों में लगभग 7.4 प्रतिशत (2.8 करोड़) लोग संगठित क्षेत्रों में लगे हैं। जबकि शेष 92.95 प्रतिशत (37.08 करोड़) लोग असंगठित क्षेत्रों में लगे हैं। संगठित क्षेत्र के तुलना में यहाँ 12.6 गुणा (1260 प्रतिशत) अधिक मजदूर असंगठित क्षेत्र में रोजी-रोटी पा रहे हैं। यह प्रवृत्ति विकसित राष्ट्रों के ठीक विपरीत है। संगठित क्षेत्र मतलब ज्यादा वेतन, ज्यादा सुविधा, ज्यादा ताकत, बेहतर जीवन-स्तर, मजबूत श्रम संघ आदि से है। इसके विपरीत परिस्थितियाँ असंगठित क्षेत्र में होती हैं। जो 12 करोड़ से अधिक महिला श्रमिक हैं उनकी स्थिति तो और बदतर है। ये तो 96 प्रतिशत (11.42 करोड़) असंगठित क्षेत्र में कार्य करने को बाध्य है और साथ ही साथ बाध्य है- आर्थिक शोषण, शारीरिक शोषण, यौन शोषण को। न तो यहाँ इन्हें सरकार द्वारा निर्धारित मजदूरी मिल पाती और न ही अधिकांश स्थितियों में सरकार द्वारा प्रदत्त मुख्य स्वास्थ्य एवं कल्याण संबंधी सुविधाएं। कुल मिलाकर संगठित एवं असंगठित क्षेत्र में महिला श्रमिकों की संख्या 12.41 करोड़ है जबकि पुरूष श्रमिकों की 27.43 करोड़ जो महिला श्रमिकों के तुलना में 2.2 गुणा अधिक है। भारत जैसे देश जहां की बहुसंख्यक जनसंख्या गांव में रहती है, निर्धन है, निरक्षर है, बुनियादी सुविधाओं से वंचित है तथा जिनके 93 प्रतिशत लोगों के रोजी-रोटी का आधार आज भी असंगठित क्षेत्र से संबंधित कार्य है। पिछले कुछ दशकों में संगठित क्षेत्र एवं असंगठित क्षेत्र में रोजगार की खाई लगातार बढ़ती ही जा रही है। असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों की वह श्रेणी है, जिनके रोजगार की प्रकृति अस्थायी है, जो अधिकांशतः अशिक्षित, बिखरे, निम्न सौदेबाजी क्षमता वाले हैं। जिन पर नियोजक का जबर्दस्त दबदबा होता है और जो अपने हित को प्राप्त करने के लिए संगठित होने में अक्षम होते हैं। संसार की कोई भी अर्थव्यवस्था जो औसत जनता का आर्थिक उत्थान एवं दो वक्त की रोटी प्रदान करने में असक्षम है, तो उस अर्थव्यवस्था में एक सीमा तक पुनर्रचना की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है। संसार में आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्र जहां 80 प्रतिशत दक्षिण अमरीका एवं केरेबियन में 88 प्रतिशत पूर्वी एशिया व प्रशांत

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