Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 02
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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428 / Jijñāsā
क्षेत्र में 82 प्रतिशत, विकासशील राष्ट्र में 74 प्रतिशत एवं दक्षिण एशिया में 60 प्रतिशत से अधिक आबादी आज भी 1 अमरीकन डालर ( औसतन 45 रूपया) प्रतिदिन के नीचे अपना जीवन गुजार रही है (यूनिसेफ, 2001 ) । इस श्रेणी की बहुसंख्यक आबादी आज भी मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र यथा कृषि, पशुपालन, मत्स्यपालन, विनिर्माण, हैंडलूम, पावरलूम, चमड़ा, पापड़ निर्माण ईंट भट्टा कूड़ा बीनने, बीड़ी निर्माण क्षेत्रों में ठेका मजदूर, आकस्मिक मजदूर, गृह आधारित कारीगर के रूप में कार्यरत है (श्रम मंत्रालय 1996 )
युनिसेफ के आंकड़ों के अनुसार कुल आबादी में आधी होते हुए भी महिलाएँ दो तिहाई काम करती है किन्तु उनके काम का एक तिहाई ही दर्ज हो पाता है। संसार की कुल सम्पत्ति का दसवीं हिस्सा ही उनके नाम है। ग्रामीण अंचल में यह अन्तर और अधिक है आर्थिक एवं सामाजिक दोनों दृष्टियों से महिला को दूसरे दर्जे का नागरिक माना गया है। विकासशील देशों में महिलाओं की हालत और भी शोचनीय है ।
लड़का-लड़की में भेदभाव का एक दुःखद और खतरनाक परिणाम यह हुआ कि लड़कियों की संख्या कम होने लगी। इससे कई सामाजिक कुरीतियाँ और अपराध बढ़ने की आशंका पैदा हुई।
पृथ्वी शिखर सम्मेलन (जून 1992) में स्वस्थ संसार बनाने के लिए महिलाओं के सशक्तिकरण की अत्यन्त आवश्यकता महसूस की गई सशक्तिकरण की परिभाषा दी गई किसी भी कार्य को करने या रोकने की क्षमता / सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया कि वास्तविक लोकतन्त्र स्थापित हो ही नहीं सकता, जब तक शासन और विकास कार्यक्रम में महिलाओं की वास्तविक भागीदारी न हो।
वस्तुतः इन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था 'असंगठित क्षेत्र प्रधान अर्थव्यवस्था है। इसकी एक सबसे बड़ी वजह से यह मालूम पड़ता है कि भूमण्डलीकरण- बाजारीकरण के इस युग में भी इन राष्ट्रों की औसतन 80-85 प्रतिशत आबादी के जीविका का एकमात्र साधन आज भी असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले छोटे व मंझोले कार्य है और सारे दिन अपने शरीर का कतरा-कतरा झोंकने के बाद भी इन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नसीब नहीं हो पाती है। इस स्थिति में समाज के बहुसंख्यक आबादी के जीवन स्तर में वृद्धि लाये बिना विकास में स्थायित्व लाना एक असंभव सा संकल्प प्रतीत होता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि भारत के 40 करोड़ लोग जो प्रतिदिन 1 अमरिकी डालर के नीचे जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं, 12 करोड़ लोग जिन्हें पीने का स्वच्छ पानी नसीब नहीं है, 69 करोड़ लोग जिन्हें सेनिटेशन सुविधा मुहैया नहीं है, 10 करोड़ कमसीन बच्चे जो अपने पारिवारिक आर्थिक दबाव के कारण खतरनाक व अति खराब दशा में कार्य करने को विवश हैं और इस स्थिति का सामना करने वाले जिन लोगों का संबंध 31 करोड़ असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों से है क्या इस श्रेणी के लोगों को वर्तमान अर्थव्यवस्था दो वक्त की रोटी, सर छुपाने के लिए छत, शरीर को ढंकने के लिए वस्त्र दे सकने में समर्थ है या नहीं और नहीं तो इसमें पुनर्निर्माण व की आवश्यकता है और यदि हो तो किस सीमा तक ।
पुनर्रचना
निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि महिला संगठित एवं असंगठित दोनों क्षेत्रों में पुरूषों की तुलना में कम
हैं संगठित क्षेत्र में जो रोजगार है उसमें महिलाएं पुरुषों की तुलना में कम रोजगार पाती हैं। इस क्षेत्र में जिन
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रोजगार में वे संकेन्द्रित हैं वे प्रशासकीय एवं प्रबंधकीय स्तर की न होकर क्लर्क एवं मैनुअल वर्कर स्तर ज्यादा है। संगठित क्षेत्र में महिलाओं की हम अच्छी खासी संख्या सेवा क्षेत्र में है जिसमें वे बैंकिंग, अन्य वित्त संस्था, बीमा, सूचना, सामुदायिक आदि क्षेत्रों में लगी हैं।
सन्दर्भ
1. द्वितीय श्रम आयोग 2002, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
2. (i) आर्थिक समीक्षा, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार, दिल्ली, पृष्ठ 5109-141