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पूर्व मध्यकालीन उत्तर भारत की राजनीतिक व्यवस्था / 411
लगता है प्रतापगढ़ तो उसका मुख्यालय था जबकि ऊणा अभिलेख से ऐसी सूचना नही मिलती। संभवतः ऊणा उसके प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र में आता था।
तंत्रपाल का पद काफी उच्च स्तर का प्रतिष्ठित पद था। वह सामन्तो पर नियंत्रण रखता था। सांमत क्षेत्रों मे अपने स्वामी के हितों की रक्षा करता था। आवश्यक होने पर शस्त्र और नीति का प्रयोग करता था। अपने स्वामी के प्रतिनिधि के रुप में वह दानपत्रों और राजकीय आदेशों का प्रतिसारण करता था। तंत्र अर्थात प्रशासन, पाल अर्थात चलाने वाला अतः वह भुक्ति का प्रधान प्रशासक होता था। वह सामन्तो के राज्य में भी राजा का प्रतिनिधि होता था। संभवतः उसके पास सैनिक टुकड़ी भी होती थी। दशरथ शर्मा जी का मानना है कि तंत्रपाल दण्डनायक का वही स्थान था, जो मुगल काल में सिपहसालार सूबेदार का था।"
कोट्ट या दुर्ग का सामरिक महत्व होता था। दुर्ग के साथ-साथ उसके आस-पास की भूमि भी स्थानीय प्रशासन के अर्न्तगत आती थी। जबकि पुलिस और सैन्य प्रशासन राज्य के अधीन था। ग्वालियर अभिलेख में वैल्लभट्ट को मर्यादाधुर्य कहा गया है जबकि अन्य अभिलेख में अल्ल को गोपगिरि दुर्ग का कोट्टपाल (दुर्ग का संरक्षक) कहा गया है। सभवतः ग्वालियर दुर्ग का सामरिक महत्व रहा होगा अतः यहां कोट्टपाल की नियुक्ति की गई जो कि एक सैनिक पद भी था। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पदवंशानुगत था। प्रतिहार शासकों की अधिकारियों को पद पर नियुक्ति के सम्बन्ध में कोई विशिष्ट नीति रही होगी। जहाँ विशिष्ट पदों को वंशानुगत रखा गया होगा।
गुर्जर प्रतिहार शासकों के सैनिक संगठन में अनेक अधिकारियों के महत्वपूर्ण पद थे जैसे दण्डनायक, बलाधिकृत, सैनापति, दूतप्रसानिक (जासूस), बलाध्यक्ष (सेनाओं का प्रमुख अधिकारी), गोल्मिक संभवतः पदाति सेना का अधिकारी, चतभट्ट स्थाई एवं अस्थाई सेना का अधिकारी आदि आदि।
प्रतिहार साम्राज्य में राष्ट्रकूटों पर नियंत्रण के लिए दक्षिणी सेना थी पालों को रोकने के लिए पूर्वी सेना और मुसलमानों का प्रतिरोध करने के लिए पश्चिमी सेना थी। राष्ट्रकूट राज्य में भी यही व्यवस्था थी। संभवतः यह क्षेत्रीय अथवा स्थानीय प्रशासन का अंग रही होगी और स्थानीय प्रमुखों का इन पर अधिकार रहता रहा होगा। __ प्रतिहार शासकों के अधीन सामन्तो की सेना भी थी। नागभट्ट द्वितीय द्वारा अनेक अनेक युद्ध लड़े गए जिसमे उसके सांमत मण्डोर के प्रतिहार, चाटसू में गुहिल, सौराष्ट्र में चालुक्य, शाकम्भरी में चाहमान सामंतो ने मदद की। रामभद्र ने सामन्तो की सहायता से विद्रोही सामन्तो को बलपूर्वक बधवाया। प्रतापगढ़ के चाहमान शासक को राजा भोजदेव के लिए महान् प्रसन्नता का स्त्रोत कहा गया है।
बी.एन. दत्ता, एस. ए. डागे तथा डी.डी. कौसाम्बी 700-1200 इ. के समय को सांमतवाद के रुप में परिभाषित करते है। समराइच्छकहा के विवरणों की व्याख्या से इन विद्वानों ने सिद्ध किया कि इस समय सामंत वादी तत्व बढ़ रहे है। डॉ. दशरथ शर्मा को मानना है कि सामन्तो की उन्नति प्रतिहार राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी थी। सामत रामभद्र के समय से ही उच्श्रृंखल हो रहे थे, महेन्द्र पाल प्रथम के समय तो उन्होंने आपस में लड़ना भी आरम्भ कर दिया था।4 महीपाल के समय मालवा के परमार शासको ने स्वतंत्रता के लिए प्रयास किए।
प्रतिहार कालीन सेना का कमजोर होना भी प्रतिहारों के पतन के लिए उत्तरदायी दिखाई देता है। राजाओं के पास विशाल सेना थी सोमतो की सेना मिलाकर बहुत बड़ी सेना हो जाती थी। आर.एस. शर्मा कहते है कि सुलेमान सौदागर राष्ट्रकूट शासको की नियमित सेना की बात करता है। इसमें सामन्तो की सेना जिसकी संख्या नियमित सेना से कदाचित अधिक थी, को नही रखा गया है। प्रतिहार शासको के पास बड़ी विशाल सेना थी किंतु उसमें निपुणता की कमी, हाथियो पर उनकी निर्भरता, सैनिक शिविरो का विलासी जीवन ने उसकी कार्य क्षमता