Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan

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Page 19
________________ विचार-यात्रा / xvil हेगेल, ग्रीन, ब्रैडले और बोसांके मुख्य थे। विशेष रूप से हेगेल के अध्ययन पर मैंने बहुत समय लगाया। मैं हेगेल के सविशेष विज्ञानवाद को शंकर के निर्विशेष ज्ञानाद्वैत से हेय मानता था और इस विषय को लेकर मैंने एक निबन्ध लिखा। एक बार प्रो. ताराचन्द से उनके घर पर मेरी बहुत देर तक बात हुई। प्रो. अनुकूल चन्द्र मुकर्जी उस समय काण्ट और शंकर के विशेषज्ञ थे। प्रो. रानाडे यूनानी दर्शन, आधुनिक दर्शन, वेदान्त और सिद्ध-सन्त दर्शन सभी के पारंगत थे। इन विद्वानों से अनेक बार विचार-विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ। प्रो. राम प्रसाद त्रिपाठी की प्रेरणा से मैंने सभ्यता का इतिहास और इतिहास दर्शन का अध्ययन भी आरम्भ किया। वे अपने अध्यापन में भी संस्कृति के इतिहास को विचारों एवं मूल्यों के इतिहास से ही रचित प्रतिपादित करते थे। __ इस बीच मैंने संस्कृत का पारम्परिक अध्ययन भी पंडित रामशंकर द्विवेदी के अध्यापन में जारी रखा। इनसे मैंने प्रौढमनोरमा के कुछ अंश, लघुमंजूषा, न्यायमुक्तावली, साहित्यदर्पण एवं ध्वन्यालोक के कुछ अंश पढ़े। पंडित क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय ने संस्कृत के ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अध्ययन के लिए निर्देशन किया। ___1944 में इतिहास विषय में एम. ए. पास करने के बाद मैंने प्रो. क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय के निर्देशन में बौद्ध धर्म के मूल को लेकर अनुसन्धान आरम्भ किया। इसके पहले कई वर्षों के पश्चिमी दार्शनिक विचारों के अनुशीलन से मेरी आस्था न सिर्फ कर्मकाण्ड से हट गयी थी बल्कि आस्तिक बुद्धि भी सन्देहों से जकड़ गयी थी। 1946 में मेरा परिचय माँ आनन्दमयी से हुआ और उनके द्वारा महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज से। इन्हीं दिनों सेमीनरी में फादर आई. ए. एक्सट्रॉस से भी परिचय हुआ। प्रो. रानाडे के भी निकट जाने का अवसर मिला। चमत्कारी नीमकरौरी बाबा के भी इन्हीं दिनों दर्शन हुए। ये नये परिचय ऐसे लोगों से थे जिन्होंने आध्यात्मिक विभूति, आध्यात्मिक दर्शन का प्रत्यक्षायमाण ज्ञान तथा गम्भीर विचारमूलक आस्था को पुष्ट किया। आँखों देखे चमत्कारों को यदि झूठा बता दिया जाय तो प्रत्यक्षा की महिमा भी सन्दिग्ध हो जाती है। यद्यपि आधुनिक इतिहासकार चमत्कारों के विवरण को अविश्वसनीय मानते हैं, वे यह कसौटी प्राय: साइनोप्टिक गोस्पल के विवरणों पर लागू नहीं करते। वे ईसा मसीह की जीवनी को असन्दिग्ध रूप से इतिहास के रूप में देखते हैं किन्नु बुद्ध की जीवनी को केवल आनुश्रविक मानते हैं। ब्रैडले का क्रिटिकल प्रीसपोजीशन्स ऑफ हिस्ट्री शीर्षक निबन्ध मुझे महत्त्वपूर्ण लगा। यह भी विचार मेरे मन में दृढ़ता से आया कि योग-विभूति को योग की परम्परा से अलग नहीं रखना चाहिए। योग के चमत्कार अतयं और संयोगजन्य नहीं होते, वे एक अत्यन्त प्राचीन विज्ञान की परम्परा से जुड़े हुए साधकों और सिद्धों में ही प्राय: मिलते हैं। यह योग की गुरु-शिष्य परम्परा ही मुझे वास्तविक आध्यात्मिक इतिहास प्रतीत हुई। इस प्रकार श्रन्द्रा और प्रत्यक्ष के विवाद के रूप में वर्तमान दार्शनिक विवाद का समाधान अध्यामविद्या के ऐसे गहन इतिहास के आलोडन के बिना मुझे सम्भव नहीं प्रतीत हुआ जो अति-मनोवैज्ञानिक (Metapsychic) तत्त्वों का आह्वान न करता हो। प्रत्यक्ष और परम्परा, वर्तमान और अतीत, दर्शन और इतिहास मुझे अविच्छेदनीय प्रतीत हुए। बौद्ध और जैन, वैदिक और आगमिक शास्त्रों के विस्तृत अध्ययन से मुझे स्पष्ट प्रतीत हुआ कि किसी भी आध्यात्मिक परम्परा को यथावत् समझने के लिए उसके मूल रूप का ज्ञान होना आवश्यक है और यह ज्ञान ऐतिहासिक विश्लेषण के बिना संभव नहीं है। परम्परा में जो नये तत्व जुड़ते हैं वे सदा मूल के अनुरूप अथवा विकासात्मक नहीं होते हैं। इस बीच में एक शोधपत्र मैंने अंगुत्तर निकाय की रचना पर प्रकाशित किया। एक बार डॉ. सम्पर्णानन्द हमारे विश्वविद्यालय में आये और उनके सम्मान में जो वैचारिक गोष्ठी आयोजित हुई उसमें प्रो. देव ने मुझसे शोधपत्र प्रस्तुत करने के लिए: १.हा। मैंने बौद्ध मनोविज्ञान पर एक आलेख पढ़ा जो श्रोताओं को बहुत पसन्द आया। उस समय धर्म मेरे लिए कर्मकाण्ड या संगठन न होकर आध्यात्मिक साधन और अनुभूति पर आधारित दार्शनिक तत्त्वज्ञान का नाम था। इसीलिए उस समय के मेरे अध्ययन-लेखन में दार्शनिक विचारों का यथावत् प्रतिपादन और उनके सत्य-असत्य का निर्णय ही मुख्य रूप से रहता था। मुझे यह बात नहीं अँचती थी कि इतिहासकार के लिए विचारों के सत्यासत्य का प्रश्न उपेक्षणीय है और न यह मान्यता

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