Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ [4] ******************** भविष्यत् काल में अनन्त तीर्थंकर होंगे तथा वर्तमान काल में पांच महाविदेह क्षेत्र में २० तीर्थंकर विद्यमान हैं उन सब का यही फरमान है कि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए, उन्हें शारीरिक या मानसिक कष्ट न देना चाहिए तथा उनके प्राणों का नाश नहीं करना चाहिए। यह अहिंसा धर्म नित्य है, शाश्वत है। संसार सागर में डूबते हुए प्राणियों पर अनुकम्पा करके उनके उद्धार के लिए तीर्थंकर भगवान् ने यह अहिंसात्मक धर्म फरमाया है । भगवान् ने जगत् जीवों के कल्याणार्थ जो धर्मोपदेश दिया है, वह सर्वथा सत्य है। वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा ही भगवान् ने फरमाया हैं, उसमें किञ्चिन्मात्र भी अन्यथा नहीं है। इस प्रकार पदार्थ का यथार्थ वर्णन इस जैन दर्शन में ही पाया जाता है, अन्य दर्शनों में नहीं क्योंकि उनमें पूर्वापर विरुद्ध बातें पाई जाती हैं। प्रश्न होता है कि उक्त पाठ में तो भगवान् ने एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की हिंसा नहीं करने का कहा है । पर यहाँ यह कहा - बतलाया कि धर्म के नाम पर भी हिंसा नहीं करनी चाहिये। भगवान् (धर्म) के नाम पर हिंसा करने पर तो महान् लाभ (फल) होता है। इसके समाधान के लिए प्रभु इसी आचारांग सूत्र में फरमाते हैं । "इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहे" अर्थात् प्रभु ने अपने केवलज्ञान में देखकर फरमाया है कि जीवहिंसा (आरम्भसमारंभ) चाहे इस जीवन को नीरोग चिरंजीवी बनाने के लिए परिवंदना - प्रशंसा के लिए, मान पूजा प्रतिष्ठा के लिए, यावत् जन्म मरण से छूटने दुःखों का नाश (अन्त) करने के लिए यानी धर्म के नाम पर ही क्यों न की जाय ? वह हिंसा "तं से अहियाए, तं से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 366