Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja Author(s): Ratanlal Doshi Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 4
________________ निवेदन जहां जीव रक्षा यही परीक्षा धर्म वही जानिये। जहाँ होत हिंसा, नहीं है संशय, अधर्म वही पहिचानिए॥ जैन धर्म अहिंसा प्रधान है। इसका सार उक्त दोहे में दे दिया गया है। धर्म की पहिचान एवं परीक्षा का एक मात्र बेरो मीटर जीव रक्षा है। जहाँ भगवान् द्वारा प्ररूपित षट्काय रूप जीवों की रक्षा होती हो तो वहाँ बिना किसी ननूनच के स्वीकार कर लेना चाहिये कि धर्म है। इसके विपरीत जहाँ षट्काय रूप जीवों में से किसी भी काय की हिंसा होती हो अथवा इनकी हिंसा में धर्म होना स्वीकार किया जाता हो वहाँ बिना किसी संशय के अधर्म मानना चाहिये। अतएव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिये। इसके लिए स्वयं तीर्थंकर प्रभु अपनी देशना रूप आगमवाणी में निरूपित करते हुए फरमाते हैं - . “से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पण्णा जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूविंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अजावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परियावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तंजहा-उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवहिएसु वा अणुवहिएसु वा संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा, तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सिं चेयं पवुच्चइ॥१२६॥" (आचारांग सूत्र) . भावार्थ - गत काल में अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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