Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 11
________________ जैनविद्या 18 वाणी की विजयपूर्णता से आप वादी हैं, जनता के हृदय को आनन्दित करने से आप वाग्मी हैं । इस प्रकार स्वामीजी की महत्ता को ज्ञापित करनेवाली बहुमूल्य सामग्री अनेक ग्रन्थों, शिलालेखों से प्राप्त होती है। इसी क्रम में सिद्धान्तसार संग्रह में आचार्य नरेन्द्रसेन की अत्यन्त मार्मिक उक्ति निम्न प्रकार है श्रीमत्समन्तभद्रस्य देवस्यापि वचोऽनघम् । प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुषत्व तथा पुनः । श्री समन्तभद्र की निर्दोष वाणी प्राणियों को मनुष्य पर्याय की प्राप्ति-सदृश अत्यन्त दुर्लभ है। श्री समन्तभद्र आगामी उत्सर्पिणीकाल की चौबीसी में तेईसवें तीर्थंकर दिव्यवाद होंगे- ऐसी जनश्रुति है। जन्मस्थान आचार्य समन्तभद्र के जन्मस्थान का परिचय श्रवणबेलगोला के श्री दोर्बलि जिनदास शास्त्री के शास्त्र-भण्डार में सुरक्षित एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के निम्न पुष्पिका वाक्य से मिलता है - ‘इति श्री फणि-मंडलालंकार स्योरगपुराधिप सूनोःश्री स्वामिसमन्तभ्रद्र मुनेःकृत आत्ममीमांसायाम्।' आप फणिमण्डल के अन्तर्गत उरगरपुर के क्षत्रिय राजा के पुत्र थे अर्थात् वे क्षत्रिय राजपुत्र थे। यह उरगपुर उरैयूर का ही श्रुतिमधुर संस्कृत नाम जान पड़ता है जो चोल राजाओं की सबसे प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी थी। पुरानी त्रिचिनापल्ली भी इसी को कहते हैं। यह नगर कावेरी नदी के तट पर बसा हुआ था, बन्दरगाह था और किसी समय बड़ा समृद्धिशाली जनपद था'। आत्म-परिचय जब आचार्य समन्तभद्र अपने वाद का उद्घोष करते हुए करहाटक नगर पहुँचे तब वहाँ के राजा को अपना परिचय इस प्रकार दिया पूर्व पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया ताडिता , पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दुलविक्रीडितम् ॥ - हे राजन, करहाटक नगर में आने से पूर्व मैंने सर्वप्रथम पाटलिपुत्र नगर (पटना) में भेरी बजाई, पश्चात् मालवदेश (मालवा), सिन्धुदेश, ठक्कदेश (पंजाब), कांचीपुरा (कांचीवरम्) और वैदिश (विदिशा)- इन देशों में स्याद्वाद का नक्कारा बजा आया। अब मैं बहु विद्वानों से भरी हुई और विद्या का उत्कृष्ट स्थान जानकर यहां आपकी सभा में आया हूँ। हे राजन! मैं वाद के लिए सिंह-सदृश क्रीड़ा कर रहा LCG पुनः काशी-नरेश के समक्ष कहा आचार्योहं कविरहमहं वादिराट् पंडितोऽहं । दैवज्ञोहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोहं ।।

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