Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 54
________________ विद्या 18 अंत में 'लाम्बुश' शब्द की चर्चा करते हुए हम लेखनी को विराम देते हैं । 'काञ्च्यां नग्नाटकोऽहम् इत्यादि श्लोक में लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः वाक्य है जिसका अर्थ स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने स्थान विशेष से किया है पर यह स्थान या जनपद किस प्रदेश में कहां हैं ? कोई उल्लेख नहीं मिलता है। आज 70-75 वर्ष बाद भी हमने बहुत प्रयास किया कि इस स्थान या प्रदेश का पता चल सके पर निराश रहे । स्व. मुख्तार सा. के सहयोगी डा. दरबारीलाल जी कोठिया तथा अन्य विद्वानों से चर्चा के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि 'लाम्बुशे' इस सप्तम्यान्त पाठ की जगह 'लाम्बुश: ' प्रथमान्त पाठ विशेषण के रूप में उपयुक्त ठहरता है जिसका अर्थ है बड़े-बड़े रोमोंवाला संन्यासी, अत: जब तक नई शोध-खोज सामने नहीं आती है तब तक 'लाम्बुशे' की जगह 'लाम्बुश: ' पाठ ही श्रेयस्कर होगा । इतिशम् 1. 2. 3. 4. देवागम स्तोत्र, श्लोक - 11 जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, द्वितीय-भाग, पृ. 93- पं. परमानन्द शास्त्री । पूर्वं पाटलिपुत्र मध्यनगरे भेरी मयाताडिता, पश्चान्मालव सिन्धु ठक्क विषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं कर हाटके बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूल विक्रीडितम् ||1|| काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिन तुनुर्लाम्बुशे पाण्ड पिण्डः, पुण्ड्रोण्डे शाक्य भिक्षुदर्शपुर नगरे मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशिधर धवलः पाण्डरंगस्तपस्वी, राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी ||2|| कर्णाटे करहाटके बहुभटे विद्योत्कटे संकटे । वादार्थं विजहार संप्रतिदिन शार्दूल विक्रीडितम् ||3|| हिस्ट्री ऑफ कनडीज लिटरेचर । युक्त्यनुशासन, प्रस्तावना, पृ. 45। स्तुतिविद्या, प्रस्तावना, पृ. 25 1 5. 6. 7. 8. 9. 10. स्तुतिविद्या, पृ. 141 । 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, प्रस्तावना, पृ. 62 1 जिनसहस्रनाम, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । आप्तमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. 42-431 तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, पृ. 174 | तीर्थंकर महावीर और उनकी उनचार्य परम्परा, भाग 2, पृ. 183-1841 जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, पृ. 211 । जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, पृ. 198 । जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, पृ. 251 जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, पृ. 1021 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, प्रस्तावना, पृ. 33 1 एपिग्रेफिया कर्णाटिका, भाग आठवां । 45

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