Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 68
________________ जैनविद्या 18 जैनविद्या 18 अप्रेल-1996 अप्रेल-1996 'युक्त्यनुशासन' और आचार्य समन्तभद्र - विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव ईसा की द्वितीय शती के सर्वोदयतीर्थवादी आचार्य स्वामी समन्तभद्र आर्हत दर्शन के प्रमाणपुरुष सारस्वताचार्यों में धुरिकीर्तनीय हैं। उन्होंने भगवान् महावीर के शासनकल्प प्रवचन को सब प्राणियों के सर्वतोभद्र अभ्युदय तथा आत्मा के पूर्ण अभ्युदय का कारण माना है और इसीलिए अपने कालोत्तीर्ण ग्रन्थ 'युक्त्यनुशासन' में उस जिन-शासन को 'सर्वोदयतीर्थ' की व्याख्या दी है। इस सन्दर्भ में इस ग्रन्थ का इकसठवाँ श्लोक द्रष्टव्य है - सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं सर्वान्त शून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वाऽऽ पदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।।61।। वीर भगवान् को सम्बोधित इस श्लोक या कारिका का तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर का तीर्थ अर्थात् शासन-कल्प प्रवचन सर्वान्तवादी अथवा अनेकान्तवादी है जिसमें गौण और मुख्य दोनों को मूल्य दिया गया है। इसलिए इसमें असंगति या विरोध की स्थिति की सम्भावना नहीं है। भगवान् का शासनवाक्य वस्तु के विभिन्न धर्मों में पारस्परिक अपेक्षा को महत्व न देकर उनमें सर्वनिरपेक्षता की स्थिति का निर्देश करता है, इसलिए वह सर्वान्तशून्य अर्थात् सब धर्मों से शून्य और परस्परानपेक्षी है। इसलिए, भगवान् का शासन-वाक्य अथवा शासनतीर्थ ही सब दु:खों का अन्त करनेवाला है। किन्तु इसकी विलक्षणता यह है कि सर्वदुःखान्तकारी होने पर भी यह निरन्त है, अर्थात् इसका किसी भी मिथ्यादर्शन से खण्डन नहीं हो

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