Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 99
________________ 90 जैनविद्या 18 प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत निबन्ध रत्नकरण्ड श्रावकाचार का प्रतिपाद्य' विषय से संदर्भित है अत: इसी पर संक्षेप में चर्चा करना हमारा मूल अभिप्रेत है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में जीवन की सार्थकता को सिद्ध करनेवाले प्रमुख तत्वों का काव्यात्मकता के साथ सविस्तार प्रतिपादन हुआ है। ये तत्व हैं - धर्म, व्रत, प्रतिमाएँ तथा सल्लेखना। इन तत्वों का सम्यक् श्रद्धान-विश्वास तथा अवबोध तदनुरूप आचरण संसारस्थ प्राणी में व्याप्त मोह-मिथ्यात्व को दूरकर निर्मल सम्यक्त्व की ओर ले जाते हुए अनन्त अविनाशी सुख का अवगाहन कराता है। काव्यपरम्परा का निर्वाह करते हुए आचार्य समन्तभद्र मंगलाचरण से विवेच्य कृति का प्रणयन करते हैं जिसमें उन्होंने अनुष्टुप् छन्द में अपने आराध्यदेव की गुणानुवाद के साथ वन्दना की है। यथा - नमः श्रीवर्द्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां, यद्विद्या दर्पणायते॥1॥ तदुपरान्त धर्म के लक्षण एवं स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। संसार की समस्त धार्मिक मान्यताओं में धर्म' का स्वरूप अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्त है। जैन मान्यतानुसार 'इष्ट स्थाने धत्ते इति धर्म:' अर्थात् जो इष्ट स्थान (स्वर्ग-मोक्ष) में धारण कराता है, धरता है, उसे धर्म कहते हैं। इसी कथ्य को आचार्य समन्तभद्र विवेच्य कृति में इस प्रकार से अभिव्यक्त करते हैं कि जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठाकर उत्तम सुख (वीतराग सुख) में धारण करता है, रखता है, वह धर्म है । वास्तव में धर्म संसार से रक्षा तथा स्वभाव में धारण करने से कर्मों का विनाशक तथा समीचीन है। आचार्य आगे कहते हैं कि धर्म रत्नत्रय का समन्वित रूप है । इस रत्नत्रय अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र के सोपान से भव्य जीव कर्मरूपी संसार-सागर से तिरकर मोक्ष का वरण करते हैं। यथा सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥3॥ आचार्य प्रवर ने विवेच्य कृति में रत्नत्रय पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है। सम्पूर्ण ग्रन्थ इसी पर आधृत है। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यग्दर्शन जो धर्म का मूल है, के स्वरूप-माहात्म्य को अड़तीस श्लोकों में प्रतिपादित किया है। सम्यग्दर्शन के स्वरूप को स्थिर करते हुए जैनागम में निर्दिष्ट है कि स्वात्मप्रत्यक्षपूर्वक स्व-परभेद का या कर्त्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन है। यह स्वतः अथवा किसी के उपदेश से या जातिस्मरण, जिनबिम्ब-दर्शन आदि के निमित्त से काल पाकर भव्य जीवों को उत्पन्न होता है । आचार्य समन्तभद्र सम्यग्दर्शन के लक्षण को व्यवहार नय की अपेक्षा से सरल शब्दावलि में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का तीन मूढ़तारहित, आठ अंगसहित तथा मदरहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यथा - श्रद्धानंपरमार्थानामाप्तागमतपोभ्रताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।।4।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118