Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 103
________________ जैन विद्या 18 त्याग, देव-वंदना, जीवदया करना, पानी छानकर पीना 22; स्थूल हिंसादि पंच पापों से विरत, जुआ, तथा मद्य का परित्याग?” । इन भेदों में जो अन्तर व्याप्त हैं वह केवल विवक्षा का भेद है। मूल में तो स्थूल पंच पापों का त्याग ही श्रावकों के मूल गुण हैं क्योंकि अन्य उपर्यंकित पाप इन्हीं पंच पापों में समा जाते हैं 24 । 94 अणुव्रतों की चर्चा के उपरान्त आचार्य समन्तभद्र ने विवेच्य कृति में आर्याच्छन्द में पचपन श्लोकों में गुणव्रतों तथा शिक्षाव्रतों के स्वरूप-माहात्म्य तथा उनके अतिचारों का वर्णन प्रभावोत्पादकता प्रस्तुत किया है 25 | अणुव्रतों के उपकारक व्रत गुणव्रत कहलाते हैं 2। यही बात विवेच्य कृति में इस प्रकार से व्यवहत है कि जो व्रत: अहिंसाणुव्रतादि गुणों का वर्द्धन करता है उसे गुणव्रत कहा जाता है। यथा - दिग्व्रतमनर्थदण्ड - व्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । अनुबृंहणाद्गुणाना- माख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः ॥67॥ 'गुणव्रत तीन प्रकार के होते हैं, यथा - ( 1 ) दिग्व्रत, ( 2 ) देशव्रत और (3) अनर्थदण्डव्रत । आचार्य समन्तभद्र ने भी गुणव्रतों की संख्या तीन मानी है, यथा - (1) दिग्व्रत, (2) अनर्थदण्डव्रत और ( 3 ) भोगोपभोग परिमाणव्रत। उन्होंने देशव्रत को इसमें गृहीत नहीं किया है 28 । इन व्रतों के लक्षण-भेद के साथ ही भोगोपभोगपरिमाणव्रत को स्पष्ट करते हुए आचार्य ने इस व्रत में जो विशेष त्याग होता है उसे भी विवेचना का आधार बनाया है । इस संदर्भ में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि मद्य, मांस और मधु से त्रसहिंसा होती है। अत: श्रावकों के लिए ये पदार्थ और इनके समान ही अन्य पदार्थ भी त्याज्य हैं। इतना ही नहीं अदरक, मूली, मक्खन, नीम के फूल, केतकी के फूल तथा इनके सदृश दूसरे पदार्थ भी भक्ष्य नहीं क्योंकि इनमें सूक्ष्म जीवों की हिंसा अधिक होती है। यथा - त्रसहतिपरिहरणार्थं, क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये । मद्यं च वर्जनीयं, जनचरणौ शरणमुपयातैः ॥84|| अल्पफलबहुविघातान्मूलक मार्द्राणि शृङ्गवेराणि । नवनीतनिम्बकुसुमम्, कैतकमित्येवमवहेयम् ||85| आचार्य आगे कहते हैं कि व्रती पुरुष को अभक्ष्य, अनिष्ट और अनुपसेव्य पदार्थों का त्याग जीवन - पर्यन्त के लिए ही करना चाहिए पर योग्य पदार्थों का त्याग समय की मर्यादा लेकर भी किया जा सकता है । यथा नियमो यमश्च विहितौ, द्वेधा भोगोपभोगसंहारात् । नियमः परिमितकालो, यावज्जीवं यमो ध्रियते ॥ 87॥ शिक्षाव्रत के सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्र चार प्रकार के शिक्षा व्रतों का उल्लेख करते हैं । यथादेशावकाशिक सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य" । किन्तु अन्य जैनाचार्यों की कृतियों में शिक्षा का उल्लेख इससे कुछ भिन्न प्रकार का मिलता है। वहां शिक्षाव्रत निम्न प्रकार से द्रष्टव्य है- सामायिक, शिक्षाव्रत, प्रोषधव्रत, अतिथि पूजा तथा सल्लेखना; भोग-विरति, परिभोग - निवृत्ति, अतिथि संविभाग तथा सल्लेखना’'; भोगोपभोग- परिमाण, सामायिक, प्रोषधोपवास तथा अतिथि संविभाग" । इन व्रतों का

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