Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 112
________________ जैनविद्या 18 अप्रेल 1996 103 समन्तभद्र स्वामी का आयुर्वेद विषयक कर्तृत्त्व - आचार्य राजकुमार जैन जैन वाङ्मय के रचयिताओं तथा जैन संस्कृति के प्रभावक आचार्यों में श्री समन्तभद्र स्वामी का नाम अत्यन्त श्रद्धा एवं आदर के साथ लिया जाता है। आप एक ऐसे सर्वतोमुखी प्रतिभाशाली आचार्य रहे हैं जिन्होंने वीरशासन के रहस्य को हृदयंगम कर दिग्- दिगन्त में उसे व्याप्त किया। आपके वैदूष्य का एक वैशिष्ट्य यह था कि आपने समस्त दर्शनों का गहन अध्ययन किया था और उनके गूढ़तम रहस्यों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। आपने धर्मशास्त्र के मर्म को हृदयंगमकर उसके आचारण-व्यवहार में विशेषरूप से तत्परता प्रकट की। आपकी पूजनीयता एवं महनीयता के कारण ही परवर्ती अनेक आचार्यों एवं मनीषियों ने अत्यन्त श्रद्धा एवं बहुमानपूर्वक आपको स्मरण किया है। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने 'युक्त्यनुशासन टीका' के अन्त में आपको 'परीक्षेक्षण' - परीक्षा नेत्र से सबको देखनेवाले लिखा है। इसी प्रकार अष्टसहस्री में आपके वचन महात्म्य का गौरव ख्यापित करते हुए आपको बहुमान दिया गया है। श्री अकंलकदेव ने अपने ग्रंथ 'अष्टशती' में आपको 'भव्यैकलोकनयन' कहते हुए आपकी महनीयता प्रकट की है। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में कवियों, गमकों, वादियों और वाग्मियों में समन्तभद्र का यश चूड़ामणि की भांति सर्वोपरि निरूपित किया है। इसी भांति जिनसेन सूरि ने हरिवंश पुराण में, वादिराज सूरि ने न्याय विनिश्चय-विवरण तथा पार्श्वनाथ चरित में, वीरनन्दि ने चन्द्रप्रभ चरित में, हस्तिमल्ल ने विक्रान्त कौरव नाटक में तथा अन्य अनेक ग्रंथकारों ने भी अपने-अपने ग्रंथ के प्रारम्भ में इनका बहुत ही आदरपूर्वक स्मरण किया है। इससे समन्तभद्र स्वामी का वैदूष्य, ज्ञान, गरिमा, पूजनीयता और परवर्ती आचार्यों पर प्रभाव भली-भाँति ज्ञात होता है। जैनाचार्यों की परम्परा में स्वामी समन्तभद्र की ख्याति एक तार्किक विद्वान के रूप में थी और वे

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