Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 108
________________ जैनविद्या 18 99 स्वामी समन्तभद्र की वाणी के आलोक में दैव और पुरुषार्थ - डॉ. सूरजमुखी जैन विश्व की विषम परिस्थितियों में होनेवाली अचिन्त्य घटनाओं को देखकर मनीषियों ने दैव और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में विभिन्न मत व्यक्त किये हैं। किसी के विचार से सभी इष्टानिष्ट घटनाओं के घटित होने का कारण एकमात्र दैव है तो अन्य के विचार से एकमात्र पुरुषार्थ । दैववादी मीमांसकों के विचार से एकमात्र दैव ही कार्यसिद्धि में कारण है, पुरुषार्थ कुछ नहीं कर सकता। मनुष्य जिसकी कभी कल्पना भी नहीं कर सकता उस प्रकार की परिस्थितियां अकस्मात् उपस्थित हो जाती हैं। नारायण कृष्ण का जन्म कारागार में हुआ, मृत्युकाल में भी उनके निकट उनकी सहायता करनेवाला कोई नहीं था । महान् योद्धा लंकापति रावण रणभूमि में मृत्यु को प्राप्त हुआ। बलभद्र राम को राजसिंहासन छोड़कर वन-वन भटकना पड़ा। महासती सीता को गर्भावस्था में भयंकर वन के दु:खों का सामना करना पड़ा। सती अञ्जना को बाईस वर्ष तक पतिवियोग की दारुण पीड़ा सहनी पड़ी। पाण्डव जैसे महासुभट तेरह वर्ष तक अज्ञातवास में रहे। नारायण का पुत्र प्रद्युम्न सोलह वर्ष तक माता-पिता से पृथक् कर दिया गया। बारात सजाकर जानेवाले दूल्हा नेमिराज वैरागी बन गये, यौवन के उमंग में उल्लासित दुल्हन राजुल भी अविवाहित रही। कोटिभट श्रीपाल व्यापार को निकला था, किन्तु गम्भीर सागर की उत्ताल तरंगों के मध्य जा पड़ा। एकाकी असहाय रैनमंजूषा की रक्षा के लिए नाव में ही शासन देव तथा देवियां उपस्थित हो गयीं। इस प्रकार की आकस्मिक घटनाओं के घटित होने का नाम ही भवितव्यता या दैव है, यह भवितव्यता दुर्निवार है।

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