Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 86
________________ जैनविद्या 18 अप्रेल-1996 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' की पारिभाषिक शब्दावलि : प्रयोग और प्रयोजन - विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया मद्रास प्रान्त में कांचीवरम के सन्निकट फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर नामक ग्राम है। वहाँ सम्भ्रान्त क्षत्रिय परिवार के प्रमुख काकुस्थ वर्मा के यहाँ संवत 125 में पुत्र-रत्न का जन्म हुआ' । बालक का नाम रखा गया शान्तिवर्मा, नामानुरूप बालक शान्त स्वभाव का था। साता-असाता कर्मों को भोगते हुए आपने अन्तेवासी के रूप में प्रारम्भिक शिक्षार्जन किया। आपने अनेक तीर्थाटन किए तथा साधु-संतों का शुभ सान्निध्य प्राप्त किया। अन्ततोगत्वा आप दिगम्बर मुनिचर्या में दीक्षित हुए और नाम रखा गया - स्वामी समन्तभद्र । दीक्षोपरान्त आपने प्राकृत, संस्कृत, कन्नड़ तथा तमिल भाषाओं का गम्भीर अध्ययन किया और अनेक उपयोगी ग्रंथों का प्रणयन कर स्व-पर कल्याण को प्राप्त हुए। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आप्त मीमांसा, युक्त्यनुशासन, जिनशतक और स्वयंभूस्तोत्र जैसे ग्रंथराज अधिक उल्लेखनीय हैं। जैन जगत में श्रावकचर्या को संयत और सुगठित रखने के लिए रत्नकरण्ड श्रावकाचार का अवदान अत्यधिक मूल्यवान है। करण्ड शब्द का अर्थ है - मन्जूषा । श्रावक अर्थात् गृहस्थचर्या के आचार-रत्नों की मञ्जूषा है - रत्नकरण्ड श्रावकाचार । गृहस्थचर्या के लिए रत्नकरण्ड श्रावकाचार वस्तुत: एक नैतिक संविधान है। इसके अनुसार आचरण करने से जीवन का विकास सुनिश्चित है। आज का जीवन अनेकमुखी प्रदूषणों और विकारों से सम्पृक्त है फलस्वरूप आज का आदमी आदमी के रक्त का प्यासा हो गया है। इस भयंकर आधि

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