Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 84
________________ जैनविद्या 18 अनुकूल आचरण निःसंदेह कल्याण का कर्ता है और आत्मा को उन्नत तथा स्वाधीन बनाने में समर्थ है। ग्रंथ की भाषा बड़ी ही मधुर, प्रौढ़ और अर्थ-गौरव को लिये हुये है। निःसंदेह यह ग्रंथ धर्म-रत्नों का छोटासा पिटारा है और इसीलिये इसका नाम रत्नकरंड बहुत ही सार्थक जान पड़ता है। इससे पहले का इस विषय का कोई भी स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, चारित्रसार, उपासकाध्ययन, अमितगति श्रावकाचार, वसुनंदि श्रावकाचार, सागार धर्मामृत और लाटी संहिता आदि प्रसिद्ध ग्रंथ इसके बाद ही बने हुए हैं। छोटा होने पर भी इसमें श्रावकों के लिए कल्याणकारी धर्म-रत्नों का संग्रह किया है, वे अवश्य ही बहुमूल्य हैं। समंतभद्र स्वामी का मत था कि निर्मोही (सम्यग्दृष्टि) गृहस्थ मोक्षमार्गी है, परंतु मोही मुनि मोक्षमार्गी नहीं है और इसीलिये मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है। उनका साधु जीवन, उनकी इस युक्ति का प्रतिबिंब था। द्वारा- प्रो. एल. सी. जैन 554, सर्राफा, दीक्षा ज्वैलर्स के ऊपर जबलपुर-482002

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