Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 65
________________ जैन विद्या 18 कहें यहां यदि ‘वीतरागी', ‘सर्वज्ञ' और 'आगम का ईश' पर विचार किया जाय तो 'आप्त' की अवधारणा अधिक स्पष्ट होगी। 56 'वीतरागी' से तात्पर्य है जिसमें किसी भी प्रकार के दोष न हों, अथवा जिसके समस्त दोषों का नाश हो गया हो। यहां समस्त दोषों से तात्पर्य क्षुधा, तृषा, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरणं, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, रति, विषाद, खेद, स्वेद, निद्रा और आश्चर्य इन अठारह दोषों से है। इन दोषों से रहित होना ही 'वीतरागी' होना है ।' यहां प्रश्न उठता है कि यह कैसे माना जाय कि कोई व्यक्ति विशेष इन दोषों से रहित है अथवा किसी व्यक्ति विशेष के इन समस्त दोषों का पूर्ण क्षय हो जाता है ? इस समस्या के समाधान में समन्तभद्र का कहना है कि किसी व्यक्ति - विशेष में इन दोषों का पूर्ण क्षय देखा जाता है, क्योंकि सभी व्यक्तियों में राग आदि दोषों का क्षय अथवा नाश एक जैसी मात्रा में नहीं रहता है, अपितु उनमें न्यूनाधिक्य रूप से तारतम्य रहता है। जैसे किसी व्यक्ति के दोषों का क्षय एक प्रतिशत है, किसी के दोषों का क्षय दो प्रतिशत, किसी के तीन प्रतिशत और किसी के चार प्रतिशत, किसी के .। इस प्रकार दोषों के क्षय का यह क्रम वहां तक चलता है जहां समस्त दोषों का पूर्ण क्षय अथवा नाश हो जाता है।' इससे फलित है कि किसी व्यक्ति-विशेष के समस्य दोषों का पूर्ण क्षय हो जाता है और किसी व्यक्ति विशेष के समस्त दोषों का पूर्ण क्षय होने का अर्थ है उसका समस्त दोषों से रहित होना, अर्थात् 'वीतरागी' होना । 'सर्वज्ञ' से तात्पर्य है जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों और उनकी समस्त पर्यायों अर्थात् अवस्थाओं को साक्षात् रूप से जानता है अर्थात् जगत के किसी भी विषय एवं उसकी किसी भी अवस्था से और घटना से अनभिज्ञ न होना। 'सर्वज्ञता' ज्ञान की वह उच्चतम अवस्था है जिसमें आत्मा बिना साधन के ही सूक्ष्म, दूरस्थ, प्रकृष्ट, अतीत और भविष्यत काल के विषयों को साक्षातरूप से 1 है । यह अवस्था तब प्राप्त होती है जब ज्ञान के समस्त आवरणों का नाश हो जाता है। ज्ञान की यही अवस्था 'निरावरण-ज्ञान' अथवा 'केवल-ज्ञान' कहलाता है जो अनन्त और अतीन्द्रिय होता है। इस ज्ञान से युक्त व्यक्ति विशेष ही 'सर्वज्ञ' कहलाता है। यहां प्रश्न उठता है कि यह कैसे माना जाय कि कोई व्यक्ति विशेष 'केवल - ज्ञान' से युक्त है, अर्थात् 'सर्वज्ञ' की सत्ता का प्रमाण क्या है ? प्रत्युत्तर में, समन्तभद्र ने अनुमान प्रमाण से 'सर्वज्ञ' की सिद्धि की है । समन्तभद्र के अनुसार जिनका स्वभाव इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता ऐसे पदार्थ, अतीत और अनागत कालवर्ती पदार्थ और दूरवर्ती पदार्थ किसी व्यक्ति-विशेष के प्रत्यक्ष अवश्य हैं; क्योंकि हम उनको अनुमान से जानते हैं। जो पदार्थ अनुमान से जाने जाते हैं वे किसी को प्रत्यक्ष भी होते हैं जैसे हम पर्वत पर अग्नि को अनुमान से जानते हैं, किन्तु पर्वत पर स्थित व्यक्ति उसे प्रत्यक्ष जानता है । इससे यह फलित होता है कि जो पदार्थ किसी के अनुमान के विषय होते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष के विषय भी होते हैं और जिनका स्वभाव इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता, ऐसे पदार्थों को अतीत और अनागत कालवर्ती पदार्थों को और दूरवर्ती पदार्थों को हम अनुमान से जानते हैं। अतः उनको प्रत्यक्ष से जाननेवाला भी कोई अवश्य है, और जो व्यक्ति विशेष उनको प्रत्यक्ष से जानता है वही सर्वज्ञ है।' अतः कहा जा सकता है कि 'सर्वज्ञ' की सत्ता है ।

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