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जैनविद्या 18
फलं कुतः
यदि सत्सर्वथा कार्य पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति । परिणाम प्रक्तृप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी ॥39॥ पुण्यपापक्रिया न स्यात्प्रेत्यभावःफलं कुतः । बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ॥4॥ यद्यसत्सर्वथा कार्यं तन्मा जनि खुपष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माश्वास: कार्यजन्मनि ।।41॥
__ - आप्तमीमांसा - कार्य को यदि सर्वथा सत् माना जाय तो चैतन्य पुरुष की तरह उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। वस्तु में परिणाम की कल्पना नित्यत्व के एकान्त की बाधक है।
- हे भगवन्, सर्वथा नित्यत्व-एकान्तवादियों के यहाँ पुण्य-पाप की क्रिया नहीं बनती, परलोकगमन भी नहीं बनता, फल-प्राप्ति की तो बात ही कहाँ से हो सकती है ? और न बन्ध तथा मोक्ष ही बन सकते हैं। यदि कार्य सर्वथा असत् है तो आकाश-पुष्प के समान उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि असत् का भी उत्पाद माना जाय तो फिर उपादान कारण का कोई नियम नहीं रहता और न कार्य की उत्पत्ति में विश्वास रहता है।
अनु. - पं. जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'