Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 36
________________ जैनविद्या 18 21 कहते हैं कि समन्तभद्र चारण ऋद्धिधारी थे जिसके कारण वे जीवों को बिना बाधा पहुँचाये शीघ्रता से सैंकड़ों कोस चले जाते थे। श्री एम.एस. रामास्वामी आय्यंगर ने अपनी 'स्टडीज इन साउथ इंडीज़ जैनिज्म' नामक पुस्तक में लिखा है - 'यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र जैन धर्म के एक बहुत बड़े प्रचारक थे जिन्होंने जैन सिद्धान्तों और जैन आचारों को दूर-दूर तक विस्तार के साथ फैलाने का उद्यम किया और वे जहाँ कहीं भी गये उन्हें दूसरे सम्प्रदायों की तरफ से किसी भी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।' स्वामी समन्तभद्र के जीवन में मन-वचन-काय की एकता विद्यमान थी। वे स्याद्वाद विद्या के अधिपति एवं उद्घोषक थे। उनका समग्र जीवन स्याद्वादमय बना था। यही कारण था कि वे अपने से भिन्न मत रखनेवाले व्यक्ति को सहज ही अपना-जैसा बना लेते थे। वे आग्रह, दुराग्रह एवं पूर्वाग्रह से रहित थे। परीक्षा और तर्क की कसौटीयुक्त अनुभव ही उनका सम्बल था। उनके जीवन का उद्देश्य कुदृष्टि, कुबुद्धि, कुनीति और कुवृत्ति का परिहारकर लोक-जीवन में शुद्धि, शक्ति एवं परम शांति की स्थापना करना था जिसमें वे निस्संदेह सफल हुए। कर्तृत्व स्वामी समन्तभद्र अपने युग की विशिष्ट देन थे। उन्होंने महावीर-शासन के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का गूढ अध्ययन, मनन एवं चिंतनकर अनेकान्त दर्शन के आलोक में एकान्तिक विचारधाराओं का निरसन किया। अपनी मौलिक दार्शनिक रचनाओं के माध्यम से उन्होंने जो कुछ कहा उसे स्वयं अपनाया और जन-चर्चा एवं जन-चर्या का विषय भी बनाया। उनकी मातृ भाषा तमिल थी किन्तु उन्हें संस्कृत, प्राकृत तथा कन्नड़ भाषा का अच्छा ज्ञान था। वे तर्क, न्याय, व्याकरण, छंद, अलंकार एवं काव्यकोषादि ग्रंथों में प्रवीण थे। शब्दों पर उन्हें अद्भुत अधिकार था। स्तुतिविद्या में आपका शब्दाधिकार, शब्दालंकार एवं काव्य-कौशल देखते ही बनता है। उनकी सम्पूर्ण रचनाएं संस्कृत भाषा में हैं जिनका विवरण निम्न प्रकार उपलब्ध रचनाएं ___ स्वामी समन्तभद्र की पाँच पद्यात्मक रचनाएं उपलब्ध हैं जो मूलतः भक्तिपरक स्तोत्र होकर गूढ़, रहस्यमयी दार्शनिक रचनाएं कही जाती हैं - 1. आप्तमीमांसा या देवागम स्तोत्र दस अध्यायों में विभक्त 114 श्लोकों की यह रचना अत्यंत दार्शनिक है। इसमें आप्त अर्थात् परमात्मा के स्वरूप की विविध दृष्टिकोणों से परीक्षाकर सच्चे परमात्मा का स्वरूप निश्चित किया है। इसे सर्वज्ञ-विशेषपरीक्षा कहा जाता है। सर्वज्ञ-परीक्षा के बहाने स्वामी समन्तभद्र ने समस्त एकांगी/एकांतिक दार्शनिक विचारधाराओं एवं उनसे जुड़ी ईश्वरीय शक्तियों की अपूर्णता सिद्ध करते हुए अनेकान्त, स्याद्वाद तथा सप्तभंगी के निरूपण द्वारा जैन-न्याय की स्थापना की। इस प्रकार आत्मा में स्व-समय के महा सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति एवं आचार में अहिंसा/अपरिग्रह की स्थापना हेतु अनेकान्तिक विचारशैली एवं .

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