Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 38
________________ जैनविद्या 18 कहते हैं कि मोहसहित अज्ञान से बंध होता है और मोहरहित अज्ञान से बन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार मोह-रहित अल्प ज्ञान से मोक्ष होता है किन्तु मोहसहित अल्प-ज्ञान से मोक्ष नहीं होता (श्लोक 98)। इस प्रकार बंध-मोक्ष में मोहयुक्त या मोहरहित अज्ञान-अल्पज्ञान की निर्णायक भूमिका होती है, जिसे समझना आवश्यक है। मोहसहित अज्ञान बन्ध का कारण है, मोहरहित अज्ञान नहीं। आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सर्वाधिक प्रबल है। यह मिथ्या दर्शन और मिथ्या चारित्र का जनक होने के कारण संसार-दुख का मूल है। इसकी 28 कर्म-प्रकृतियाँ हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि स्वामी समन्तभद्र के अनुसार एकान्त दर्शन और मोह सहमार्गी हैं। जहाँ एकान्त है वहाँ मोह है और जहाँ मोह है वहाँ दुख है। अतः मोह के विनाश हेतु अनेकान्त दर्शन का आश्रय लेना अनिवार्य है। स्याद्वाद और केवलज्ञान में समानता - सम्पूर्ण तत्वों का प्रकाशन स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों से होता है। अंतर मात्र इतना है कि स्याद्वाद परोक्षरूप से अर्थों को जानता है और केवलज्ञान प्रत्यक्षरूप से। जो वस्तु दोनों ज्ञान में से किसी भी ज्ञान का विषय नहीं है वह अवस्तु है (श्लोक 105)। इस प्रकार स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही पूज्य हैं। अतः तत्वप्रकाशन हेतु सर्वथा एकान्त का त्यागकर कथंचित् स्याद्वाद का आश्रय लेना चाहिये। वस्तुत नय-सापेक्ष कथन ही स्याद्वाद है। निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। 2. युक्त्यनुशासन या वीर जिनस्तोत्र ___ इसमें 64 पद्य हैं जिनमें जैन धर्म और अन्य धर्मों के गुण-दोषों का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है जिससे लक्ष्य-भ्रष्ट जीव न्याय-अन्याय, हित-अहित और गुण-दोष का निर्णय कर सन्मार्ग पर लग सकें। स्वामी समन्तभद्र के अनुसार - ‘प्रत्यक्ष और आगम के अविरोध रूप जो अर्थ का अर्थ से प्ररूपण है उसे युक्त्यनुशासन कहते हैं और वही महावीर भगवान को अभीष्ट है (श्लोक 48)। महावीर का शासन क्रम से दया (अहिंसा), दम (संयम), त्याग (अपरिग्रह) और समाधि (प्रशस्त ध्यान) इन चार मूल स्तम्भों पर आधारित है। इनमें दया प्रधान है। कहा भी है 'धर्मस्य मूलं दया' । दयारहित संयम, त्याग एवं समाधि व्यर्थ हैं। (श्लोक 6)। स्वयंभू स्तोत्र (119) में अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं' कहकर अहिंसा की उपासना की पुष्टि की है। सर्वोदय तीर्थ की उद्घोषणा - सर्वोदय अर्थात् सबका उदय-अभ्युदय जीवन का लक्ष्य है। आज सर्वोदय की चर्चा हर-एक मंच से की जाती है। इस शब्द का सर्वप्रथम उपयोग स्वामी समन्तभद्र ने अपनी रचना युक्तयनुशासन के श्लोक सं. 61 में सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव' कहकर किया। उन्होंने घोषणा की कि महावीर का.अनेकांतिक शासन ही ऐसा साधन है जो समस्त दुर्नयों एवं मिथ्यादर्शनों का विनाशकर जाति, कुल, वर्ण, स्थान-देश आदि का भेद-भाव किये बिना न केवल सम्पूर्ण मनुष्य जाति किन्तु प्राणिमात्र को अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त एवं समता के आधार पर आत्म-विकास का अवसर प्रदानकर उन्हें सम्पूर्णरूप से भद्र एवं पूर्ण बनाता है। आज इस अर्थ में सर्वोदय शब्द अपना सही अर्थ खो चुका है जिसकी पुनर्स्थापना आवश्यक है।

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