Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 41
________________ जैनविद्या 18 एवं निग्रंथ गुरुओं का अष्ट अंगसहित, तीन मूढ़तारहित तथा आठ मद-विहीन श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं (श्लोक 4)। इस प्रकार शुद्ध-आत्म स्वरूप के प्रति रुचि/विश्वास ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन से युक्त चाण्डल का पुत्र भी देव-समान है (श्लोक 28)। इस प्रकार ऊंच-नीच के भेदरहित कोई भी व्यक्ति/ जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है। मनुष्य तो क्या, एक कुत्ता भी धर्म अर्थात् सम्यग्दर्शन के प्रभाव से देव बन जाता है और पाप/अधर्म से देव भी कुत्ता बन जाता है (श्लोक 29)। आत्म-श्रद्धानी जीव भय, आशा, स्नेह एवं लोभ से रहित अर्थात् इनके प्रति अनासक्त होते हैं तथा अनात्मवादियों की विनय भी नहीं करते (श्लोक 30)। धर्म का आधार/बीज सम्यग्दर्शन है। इसके बिना साधुत्व का बाह्य आडम्बर व्यर्थ है। मोही साधु से निर्मोही-आत्मश्रद्धावान-गृहस्थ श्रेष्ठ हैं (श्लोक 33)। इस प्रकार आत्म-श्रद्धान-विहीन गृहत्यागी साधु मोक्षमार्गी नहीं हैं जबकि आत्म-श्रद्धान-सहित गृहस्थ मोक्षमार्गी हैं। विराट् वस्तु-स्वरूप को जैसा का तैसा, न्यूनता, अतिरिक्तता, विपरीतता और सन्देहरहित जानना सम्यक् ज्ञान है (श्लोक 42)। संक्षेप में शुद्धात्मा का ज्ञान ही सम्यक्ज्ञान है, जो सम्पूर्ण वस्तु-स्वरूप का बोध कराता है। दर्शन-मोह-रहित सम्यग्ज्ञान युक्त साधु राग-द्वेष की निवृत्ति हेतु चरण अर्थात् सम्यक् चारित्र धारण करता है (श्लोक 47)। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, सेवा और परिग्रह ये पाप-प्रणालियाँ हैं। इनसे जो विरक्त होता है, वह सम्यग्ज्ञानी का सम्यक् चारित्र है (श्लोक 49)। साधु इनका सम्पूर्णरूप से त्यागकर सकल चारित्र (सर्वसंयम) धारण करते हैं। गृहस्थ अंशरूप से त्यागकर विकल-चारित्र (देशसंयम) धारण करते हैं (श्लोक 50)। - गृहस्थ पाँच अणुव्रत अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह, तीन गुणव्रत अर्थात् दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण व्रत तथा चार शिक्षाव्रत अर्थात् देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य, इस प्रकार बारह व्रत-रूप देशचारित्र को क्रमशः धारण करते हैं (श्लोक 51) और मद्य, मांस तथा मधु के त्यागी होते हैं। पाँच अणुव्रत और तीन म-कार का त्याग श्रावक के ‘अष्ट मूल गुण कहलाते हैं। इनका विस्तृत एवं सूक्ष्म वर्णन तीन से पाँचवें अध्याय में किया गया है। सामायिक के समय गृहस्थ को चेलोपसृष्ट मुनि' की उपमा दी गयी है। छठे अध्याय में धर्मार्थ एवं सद्गति हेतु उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा एवं रोग की स्थिति में जागरूकता और समाधिपूर्वक देहत्याग-समाधिमरण का विधिपूर्वक वर्णन है। सातवें अध्याय में गृहस्थ के उत्तरोत्तर विकास हेतु ग्यारह प्रतिमाओं अर्थात् पदों का वर्णन है जिनको धारणकर निर्मोही साधु तक की यात्रा सम्पन्न होती है। इस प्रकार स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में धर्म और धर्मार्थ का वर्णन किया है। अनुपलब्ध रचनाएं स्वामी समन्तभद्र ने उक्त रचनाओं के अलावा निम्न ग्रंथों की रचना की। ये ग्रंथ यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं फिर भी उनका उल्लेख पूर्ववर्ती आचार्यों एवं लेखकों ने अपनी रचनाओं में किया है - 1. जीवसिद्धि - आचार्य जिनसेन द्वारा रचित हरिवंशपुराण में जीवसिद्धि विधायीहकृत युक्त्यनुशासनं'

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