Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 48
________________ जैनविद्या 18 अपेक्षैकान्तादि प्रबलग रलोद्रेक दलिनी, प्रवृद्धाने कान्तामृत रस निषेकाननवरतम् । प्रवृत्रा वागेषा सकल विकलादेश वशत: समन्तात्भद्रं वो दिशतु मुनिवस्यामलमते: ||5|| कार्यादेर्भेद एव स्फुटमिह नियतः सर्वथाकारणादे रित्याद्ये कान्तवादोद्धततरमतयः शांततामाश्रयन्ति । प्रायो यस्योपदेशादविघटित नयान्मानमूलादलंघ्यात् स्वामी जीयात्स शश्वत प्रथिततरयतीशोऽकलं कोरुकीर्तिः ||6| येनाशेष कुनीति वृत्ति सरित: प्रेक्षावतां शोषिता: यद्वाचोऽथकलंकनीति रुचिरातत्वार्थ सार्थद्युत: । - श्री स्वामिसमन्तभद्रयति भृद्भूयाद्विभुर्भानुमान् विद्यानंदघनप्रदोऽनघधियां स्याद्वाद मार्गाग्रणीः ||7|| ( अष्ट सहस्त्री ) 39 प्रमाणनयनिर्णीत्वस्तुतत्वमवाधितं । जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनं ॥8॥ ( युक्त्यनुशासन टीका) महाकवि वीरनंदी आचार्य ने अपने चन्द्रप्रभ-चरित में स्वामी समन्तभद्र का यशोगान निम्न शब्दों में किया है. गुणान्वितानिर्मलवृत्त मौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टि परमेवदुर्लभी समन्तभद्रादिमवा च भारती ।। 'सिद्धान्त-सार-संग्रह' के रचयिता श्री नरेन्द्रसेनाचार्य ने समन्तभद्र की वाणी को अनघ (निष्पाप ) सूचित किया है. श्रीमत्समन्तभद्रस्य देवास्यापिवचोऽनघं । प्राणिनां दुर्लभं यद्वमानुषत्वं तथा पुनः ।। अपभ्रंश के यशस्वी मनीषी भट्टारक यशकीर्ति (लगभग 12वीं सदी) ने अपने 'चंदप्पह- चरिउ' में मुनि संमतभद्र की वंदना करते हुए शिवपिंडी को फोड़ चन्द्रप्रभ भगवान के अवतरण से राजा रुद्र (शिव) रंजित करने का उल्लेख निम्न छंद में किया है - णामें समन्तभद्दु विमुणिंदु अइ णिम्मत्वु णं पुण्णिमही चंदु । जिय रंजिउ राया रुद्दकोडि जिणथुति मित्ति सिपिंडि फोडि ॥ यद्भारत्याः कविः सर्वोऽभवत्सज्ज्ञानपारगः । . तं कविनायकं स्तौमि समन्तभद्र योगिनम् ॥ संवत् 1727 में कवि दामोदर ने चन्द्रप्रभ - चरित्र की रचना करते हुए स्वामी समंतभद्र को नमन किया है -

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