Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ जैनविद्या 18 अप्रेल-1996 कलिकाल गणधर : आचार्य समन्तभद्र - डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल भगवान महावीर की आचार्य-परम्परा में स्वामी समन्तभद्र का अतिविशिष्ट स्थान होने के कारण परवर्ती आचार्यों ने उन्हें कलिकाल गणधर, भारत-भूषण, कविन्द्रभास्वान, आद्यस्तुतिकार, भावी तीर्थंकर, भद्रमूर्ति और जिन-शासन के प्रणेता जैसी अति सम्मानित उपाधियोंसहित स्मरण किया है। स्याद्वादी स्वामी समन्तभद्र का उदय उस समय हुआ जब भारतीय दार्शनिक-क्षितिज में अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, गौतम और जैमिनी जैसे मनीषी वस्तु-स्वरूप के अशंज्ञान को सर्वांश कह रहे थे। ऐसे संक्रमणकाल में उन्होंने अपनी कालजयी कृति आप्तमीमांसा में ईश्वर, कपिल, सुगत और परम पुरुष ब्रह्मा की तार्किक परीक्षाकर वीतराग-सर्वज्ञ अरहंत-भगवान को सच्चा आप्त (ईश्वर) घोषित किया। स्वामी समन्तभद्र ने सर्वज्ञ (तीर्थंकर) - परीक्षा एवं उनकी स्तुति में भक्तिपरक, गूढ़-दार्शनिक एवं तार्किक रचनाएं लिखकर सर्वज्ञता, अनेकान्त, दया (अहिंसा), स्याद्वाद एवं अपरिग्रह की जन-प्रतिष्ठा की। उनके इस अद्भुत योगदान को दृष्टिगत कर परवर्ती आचार्यों/विद्वानों ने अपनी रचनाओं में स्वामी समन्तभद्र को अनेक उपमाओं से विभूषित कर अति श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। भगवज्जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में उन्हें महान कविवंद्य, वादी, वाग्मी और गमक कहा है। जो वाद-विवाद में विजय प्राप्त करे उसे वादी कहते हैं। जो अपनी वाक्पटुता से दूसरों को अपना बना ले उसे वाग्मी कहते हैं और जो दूसरे विद्वानों की रचनाओं के रहस्य को सुगमतापूर्वक समझने में चतुर/प्रवीण हो उसे गमक कहते हैं। अजितसेनाचार्य ने अलंकार चिंतामणि में समन्तभद्र को कविकुंजर, मुनिवंद्य और जनानन्द कहा है। श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने अपनी अनेकान्तजयपताका में समन्तभद्र को वादिमुख्य'

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118