Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 23
________________ 14 सद्भाव हो जायेगा, पृथक्-पृथक् नहीं हो सकेंगे। इस प्रकार आप्तमीसांसा में आप्त की सही व्याख्या करते हुए सारे एकान्त पक्षों की डटकर आलोचना की गई है। क्षणिक एकान्त, नित्य एकान्त आदि को समझाकर अनेकान्त को दृष्टान्तपूर्वक समझाया हैघट - मौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शौक - प्रमोद - माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ||591 - घटार्थी, मुकुटार्थी तथा सुवर्णार्थी व्यक्ति सुवर्ण-घट के नाश होने पर क्रमशः शोक, आनन्द तथा माध्यस्थ भाव को हेतुसहित प्राप्त होते हैं। अर्थात् घड़े को चाहनेवाला घड़े के फूट जाने पर रोता है, सुवर्ण का मुकुट बन जाने पर मुकुट चाहनेवाला प्रसन्न होता है किन्तु सुवर्ण चाहनेवाला न रोता है न हंसता है अपितु मध्यस्थ भाव को धारण करता है। इस प्रकार ग्रंथ में विविध विषय लिये गये हैं, जैसे द्रव्य - पर्याय, उपायतत्व, उपेयतत्व, दैव-पुरुषार्थ, पुण्य-पाप, मोक्ष, प्रमाण, स्याद्वाद आदि सभी विषयों पर खुलकर विचार प्रकट किये गये हैं । विद्या 18 युक्त्यनुशासन युक्त्यनुशासन भी एक स्तुतिपरक रचना है। यह रचना 64 पद्यों की महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है । देवागमस्तोत्र में युक्तिपूर्वक आप्त और आप्त के शासन (उपदेश) की मीमांसा करके आप्त वीर (महावीर) को, आप्तशासन - वीर के शासन को सिद्ध किया है। इस कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त ही वीर और उसके स्याद्वाद-शासन की स्तुति (गुणानुवाद) करने के उद्देश्य से ही स्वामी समन्तभद्र ने इस युक्त्यनुशासन की रचना की है। टीका के अनुसार यह ग्रंथ दो प्रस्तावों में विभक्त किया गया है। पहला प्रस्ताव कारिका 1 . से 39 तक तथा दूसरा 40 से 64 तक है। 1. 2. प्रथम प्रस्ताव में स्तुतिकार ने देवागम के द्वारा सिद्ध-निर्दोषता, सर्वज्ञता और आगमेशिता इन तीन गुणों से विशिष्ट वर्द्धमान वीर की स्तुति करने की प्रतिज्ञा की है । दूसरी में स्तुति का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहा है कि लोक में उसे स्तुति कहा गया है जिसमें यथार्थता को लोप करके बढ़ा-चढ़ाकर गुणोत्कर्ष किया जाय । किन्तु हे प्रभो ! आप तो अनन्त गुणों के समुद्र हैं, आपके गुणों को अंशमात्र भी हम नहीं कह सकते तब आपकी स्तुति कैसे की जाय ! किन्तु फिर भी धृष्टता का अवलम्बन लेकर भक्तिवश मैं (समन्तभद्र) आपकी स्तुति करता हूँ | भगवान, आपने ज्ञानावरण-दर्शनावरण को क्षयकर शुद्धि प्राप्त की है। अन्तराय का सर्वथा नाश करके अनन्त शक्ति और मोह का नाश करके अनन्त सुख प्राप्त किया है। इसलिये आप ही मोक्षमार्ग के नेता और शास्ता हो । जब वीर का महान् होना तथा उसके शासन का महान् होना सिद्ध हो चुकता है तो फिर उसका प्रभाव अर्थात् एकाधिपत्य सब पर क्यों नहीं है ? इसका उत्तर आचार्य इस प्रकार देते हैं -

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