Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 24
________________ जैन विद्या 18 कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनाशयो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मी, प्रभुत्वशक्तेरपवाद हेतुः ||5|| - हे नाथ, आपके शासन में एकाधिपतित्व-रूप लक्ष्मी के अधिपति होने की शक्ति का अपवाद एक तो यह है कि यह कलिकाल है और दूसरा कारण वक्ता के वचन, उपदेश की अकुशलता है और तीसरे श्रोताजन का कलुषित हृदय है । इस प्रकार बाह्य और अभ्यंतर कारणों से ही वीर का शासन सबके द्वारा ग्राह्य नहीं है। हे भगवन् । आपका शासन अद्वितीय है . - दयादमत्यागसमाधिनिष्ठं नयप्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ||6|| 15 - हे वीरजिन । आपका यह अनेकान्तरूप शासन अद्वितीय है। क्योंकि इसमें दया, दम, त्याग और समाधि की तत्परता है। नय और प्रमाण से इसमें द्रव्य, पर्याय रूप जीवादिक तत्वों का अविरोधरूप से सुनिश्चित असम्भषद् बाधकरूप से निर्णय किया गया है ! हे भगवन ! आपके मत में सर्वथा शब्द को स्थान नहीं है। न तो सर्वथा भेद और न सर्वथा अभेद ही वस्तु है अपितु अपेक्षाकृत भेद और अभेद है। अभेद-भेदात्मकमर्थ तत्वम्, तव स्वतंत्राऽन्यतरत्खपुष्पम् । अवृत्तिमत्वात् समवायवृत्तेः संसर्गहानेः सकलार्थहानिः ॥7॥ - हे वीर प्रभो ! आपके द्वारा प्रतिपादित वस्तु-स्वरूप अभेद और भेद (एक-अनेक) दोनों रूप हैं, न केवल अभेद (द्रव्य) और न केवल भेद (पर्याय) रूप ही है अपितु भेदाभेद-रूप है । केवल भेद और केवल अभेद आकाशकुसुम-समान निरर्थक है। आगे की 8 से 34 कारिकाओं में सांख्यमत के अभेदवाद, नित्यवाद, सौत्रांतिक बौद्धों के भेदवाद, क्षणिकवाद, विज्ञानाद्वैतवाद, बौद्धों के विज्ञानवाद और माध्यमिक शून्यवाद की विस्तृत एवं कड़ी समीक्षा की गई है। आगे 35-36वीं कारिका में चार्वाक के भौतिकवाद की समीक्षा की गई है। 37 से 39 तक प्रवृत्तिरत अनाचार समर्थक क्रियाओं की आलोचना भी है । 40 से 64 तक वीर जिन के द्वारा प्ररूपित वस्तुतत्व का सयुक्तिक विवेचन किया गया है । वस्तुतः इन सभी कारिकाओं में वीरशासन में वस्तु का स्वरूप किस प्रकार व्यवस्थित है, इसी का मुख्यरूप से प्रतिपादन है । अन्य एकान्तवादों में स्वीकृत वस्तु-स्वरूप को यहां गौण किया गया है। जैन दर्शन में सामान्य और विशेष एक और अनेक, द्रव्य और पर्याय, नित्य और अनित्य का कैसा स्वरूप प्रतिपादित किया गया है उसे पूर्णरूपेण दर्शाया गया है। इस प्रकार युक्त्यनुशासन में भगवान महावीर की स्तुति के साथ जैन दर्शन का महत्वपूर्ण विवेचन किया गया है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार (रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्रावकाचार - परम्परा में पहला श्रावकाचार है। यह स्वामी समन्तभद्र की सारगर्भित कृति है। आचार्य ने अव्रती श्रावक से लेकर व्रती श्रावक की समस्त क्रियाओं का प्रतिपाद

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