Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 26
________________ जैनविद्या 18 का लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं कि विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रहः। ज्ञानध्यानतपोरत्नस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥10॥ - पांचों इन्द्रियों के विषयों की इच्छा से रहित हो, कृषि-वाणिज्य आदि आरम्भ का त्यागी हो, बाह्य दश और अन्तरंग चतुर्दश - ऐसे चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्यागी हो, ज्ञान-ध्यान और तप में लीन हो वह तपस्वी सच्चा गुरु कहलाता है। ____ इस प्रकार सम्यग्दर्शन का लक्षण और उसकी प्राप्ति का उपाय बताकर सम्यग्दर्शन के निःशंकित, निकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ऐसे आठों अंगों का विवेचन रत्नकरण्ड में समझाया गया है। लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, और गुरुमूढ़ता ऐसे तीन मूढ़ताओं का तथा ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठों का मद करने से सम्यग्दर्शन दूषित होता है। इनका विवचेन तथा छः अनायतनों का स्पष्टीकरण भी ग्रंथ में किया गया है। सम्यग्दर्शन की प्रशंसा में कहा गया है कि जैसे बीज के अभाव में वृक्ष नहीं हो सकता वैसे सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पति, वृद्धि और उनका फल नहीं हो सकता। इस प्रकार स्वामीजी ने सम्यग्दर्शन की प्रशंसा में अनेक श्लोक लिखकर प्रथम परिच्छेद पूर्ण किया। . द्वितीय परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का विवेचन किया गया है। सम्यग्ज्ञान का लक्षण बताते हुए कहा है - अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्य विनाच विपरीतात्। निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥42॥ - जो वस्तु-स्वरूप को न्यूनतारहित, अधिकतारहित और विपरीततारहित, सन्देहरहित, जैसा का तैसा जानता है वह सम्यग्ज्ञान है। ___इसी सम्यग्ज्ञान के विषय-विस्तार को उजागर करनेवाले प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग - चारों अनुयोगों का लक्षणसहित विस्तार करना ग्रंथ की विशेषता है। तृतीय परिच्छेद में गृहस्थ के चारित्र का वर्णन किया गया है। राग-द्वेष की निवृत्ति होने में ही हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह की निवृत्ति बताकर सब का पृथक्-पृथक् लक्षण लिखकर श्रावक के मूल गुणों को बताया है। रागद्वेष की निवृत्ति ही सच्चा चारित्र है - रागद्वेष निवृत्तेहिंसादि निवर्तनाकृता भवति । अनपेक्षितार्थवृतिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥48॥ - रागद्वेष की निवृत्ति हो जाने पर हिंसादि पांचों पाप समाप्त हो जाते हैं। इससे सारी अपेक्षाएं निवृत्त हो जाती हैं। आचार्य कहते हैं कि जिसे किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं है वह राजा की सेवा क्यों करेगा ? अर्थात् राग-द्वेष के दूर हो जाने पर व्यक्ति स्वतंत्र हो जाता है। किसी के अधीन नहीं रहता है। आचार्य समन्तभद्र ने श्रावक के अष्ट मूलगुण निम्न प्रकार बताये हैं -

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