Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 20
________________ जैनविद्या 18 11 शरीररहित अवस्था-सिद्ध पर्याय प्राप्त करा देते हैं, आपको नमस्कार करने से सबका स्वामी और नायक हो जाता है। अतः हे भव्यजनो ! ऐसे विमलनाथ स्वामी को तुम भी नमस्कार करो। पादादि यमक श्लोक समस्त पतिभावस्ते समस्तपति तद्विषः । संगतोहीन भावेन संगतो हि न भास्वतः ॥72॥ - हे परिग्रहरहित भगवन् ! यद्यपि समस्त पतिभाव (सर्व स्वामित्वभाव) आपमें और सूर्य में समानरूप से प्रकाशमान है। जिस प्रकार आप समस्त जगत के स्वामी हैं उसी प्रकार सूर्य भी समस्त जगत का स्वामी है। किन्तु फिर भी आपकी और सूर्य की समता नहीं हो सकती। सूर्य आपकी बराबरी नहीं कर सकता क्योंकि आपने अपने कर्म-शत्रुओं को सर्वथा नष्ट कर दिया है इसलिये आप उत्कृष्टतासहित हैं परन्तु सूर्य के अंधकार आदि अशुभ अब भी विद्यमान हैं। गुफा आदि स्थानों तथा रात्रि में अंधकार रहता है। इसलिए वह हीनभावेन संगतः अर्थात् अनुत्कृष्टता से सहित है। सूर्य ज्योतिष्क देवों में सबसे उत्कृष्टइन्द्र नहीं किन्तु प्रतीन्द्र है। इसलिए आप समस्त पतिभाव की अपेक्षा सूर्य के समान होने पर भी शत्रु सद्भाव तथा हीनभाव की अपेक्षा उसके समान नहीं हैं अपितु महान हैं। बहुक्रियापाद द्वितीयपाद मध्य यमकाऽतालुव्यञ्जनाऽवर्ण स्वरगूढ - द्वितीयपाद सर्वतोभद्र-गत प्रत्यागताऽर्धभ्रमः पारावारारवारापारा क्षमाक्ष क्षमाक्षरा। वामानाममनामावारक्ष मर्द्धर्द्धमक्षर ॥840 - हे प्रभो! आपकी दिव्य ध्वनि समुद्र की गर्जना के समान अत्यन्त गंभीर है। आप समस्त पदार्थों के जाननेवाले हैं। पापों के नाश करनेवाले हैं। ज्ञानादि गुणों से बद्ध हैं। क्षयरहित हैं। हे भगवान! आपकी क्षमा महान है और अविनाशी है। इसलिये आप मुझ वृद्ध को भी प्रसन्न कीजिये। सुशोभित कीजिये। • दो अक्षरों का श्लोक (नेमिनाथ जिन-स्तुति) मानोनानामनूनानां मुनीनांमानिनामिनम्। ममूनामनुनौमीमं नेमिनामानमानमन् ॥97॥ - मैं समन्तभद्र अंहकाररहित उत्कृष्ट एवं सम्पूर्ण चारित्र के धारक पूज्य और ज्ञानवान् मुनियों के स्वामी भगवान नेमिनाथ को मन-वचन-काय से पुनः-पुनः नमस्कार करता हुआ उनकी निरंतर स्तुति करता हूँ। इस प्रकार स्तुतिविद्या में विचित्र, एक से बढ़कर एक यमकालंकार, मुरजबन्ध, अर्द्धभ्रम, अनुलोमप्रतिलोम श्लोक, सर्वतोभद्र, एकाक्षर, चक्रवृत इत्यादि अलंकार अलंकारचिंतामणि में उदाहरण रूप में दिये गये हैं। आचार्य समंतभद्र को स्तुति का व्यसन था ‘सुस्तुत्यां व्यसनं' । 'शिरोनति परं' वे जिनेन्द्रभक्ति को सर्वोपरि मानते थे। दुःख-रूपी समुद्र से पार होने में जिनेन्द्र भगवान की शरण को नौका का

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