Book Title: Jain Vidya 14 15 Author(s): Pravinchandra Jain & Others Publisher: Jain Vidya Samsthan View full book textPage 5
________________ आरंभिक 'जैनविद्या' शोध-पत्रिका का यह संयुक्तांक वीरसेन विशेषांक के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त और भूतबलि नामक शिष्यों को द्वितीय पूर्व के कुछ अधिकारों का ज्ञान दिया। उस ज्ञान के आधार से षट्खण्डागम की सूत्र-रूप में रचना की। यही आगम दिगम्बर सम्प्रदाय में ईसा की दूसरी शताब्दी का ग्रन्थ माना जाता है। इसकी रचना ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को पूर्ण हुई थी। इस दिन को श्रुत पंचमी के रूप में दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा आज भी मनाया जाता है। धरसेनाचार्य के लगभग समकालीन ही आचार्य गणधर ने कषायपाहुड की रचना की है। वीरसेनाचार्य ने षट्खण्डागम के पाँच खण्डों पर बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखी जो 'धवला' नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने कषायपाहुड पर भी टीका लिखी, किन्तु वे उसे बीस हजार श्लोकप्रमाण लिखकर स्वर्गवासी हुए। उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्य ने चालीस हजार श्लोकप्रमाण लिखकर पूरा किया। यह टीका 'जयधवला' के नाम से विख्यात है। इस तरह से आचार्य वीरसेन ने बानवे हजार श्लोकप्रमाण रचना की। 'महाभारत' एक लाख श्लोकप्रमाण होने से संसार का सबसे बड़ा काव्य समझा जाता है पर वह एक व्यक्ति की रचना नहीं है। आचार्य वीरसेन की रचना मात्रा में महाभारत से थोड़ी ही कम है, पर वह एक ही व्यक्ति के परिश्रम का फल है। "धन्य है आचार्य वीरसेन स्वामी की अपार प्रज्ञा और अनुपम साहित्यिक परिश्रम।" आचार्य वीरसेन राजस्थान के गौरव हैं। वे चित्तौड़गढ़ के निवासी थे। उनका समय आठवींनौवीं शताब्दी माना जाता है। इनकी टीकाएं अधिकांश प्राकृत भाषा में हैं। यह निर्विवाद है कि आचार्य वीरसेन ने धवला और जयधवला टीकाओं के माध्यम से षट्खण्डागम और कषायपाहुड की गूढतम सामग्री को अभूतपूर्वरूप में प्रस्तुत कर अप्रतिम लोक-कल्याण किया है। . इस संयुक्तांक में जिन विद्वानों ने आचार्य वीरसेन पर अपनी रचनाएं भेजी हैं, उनके हम आभारी हैं। पत्रिका के सम्पादक, सहयोगी सम्पादक एवं सम्पादक मण्डल धन्यवादाह हैं। कपूरचन्द पाटनी मंत्री नरेशकुमार सेठी अध्यक्ष प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजीPage Navigation
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