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प्रकरण पहला
की पर्याय का उत्पाद होने पर मिट्टी की पिण्ड पर्याय का व्यय।
ध्रौव्य :- दोनों पर्यायों में (उत्पाद और व्यय में) द्रव्य का सदृशतारूप स्थायी रहना, उसे ध्रौव्य कहते हैं; जैसे कि पिण्ड और घट पर्याय में मिट्टी का नित्य स्थायी रहना।
(2) द्रव्य का लक्षण सत् है; इसलिए उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - इन तीनों से युक्त सत् ही द्रव्य का लक्षण है। इन तीनों से युगपत् (एक ही समय में) युक्त मानने से ही सत् सिद्ध होता है। वस्तु स्वतः सिद्ध है; उसी प्रकार वह स्वतः परिणमनशील भी है; इसलिए यहाँ वह सत् नियम से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप है।
(पञ्चाध्यायी, भाग 1, गाथा 86-89) (3) प्रत्येक पदार्थ में पूर्व पर्याय का नाश होकर ही नवीन पर्याय का उत्पाद होता है, किन्तु ऐसा होने पर भी वह अपनी (प्रवाहरूप) धारा को नहीं छोड़ता। इससे ज्ञात होता है कि पदार्थ उत्पादादि त्रयात्मक है, किन्तु यहाँ उस उत्पाद और व्यय को भिन्न कालवर्ती न लेकर एक कालवर्ती (एक समयवर्ती) ही लेना चाहिए क्योंकि पूर्व पर्याय के व्यय का जो समय है, वही नवीन पर्याय के उत्पाद का समय है। दूध का विनाश और दही का उत्पाद भिन्नकालवर्ती नहीं है। इस प्रकार उत्पाद और व्यय एक कालवर्ती सिद्ध होने से सत् युगपत् उत्पादादि त्रयात्मक सिद्ध होता है.'
(पण्डित फूलचन्दजी द्वारा सम्पादित पञ्चाध्यायी;
अध्याय 1, गाथा 85 से 96 का विशेषार्थ) (4) प्रत्येक द्रव्य सदैव स्वभाव में रहता है, इसलिए 'सत्' है। वह स्वभाव, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप परिणाम है। जिस प्रकार द्रव्य के विस्तार का छोटे से छोटा अंश, वह प्रदेश है, उसी