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प्रकरण तीसरा
छूट जाए तो कालान्तर में तत्सम्बन्धी संशय और विस्मरण हो जाता है।
(3) अवाय - ईहा से जाने हुए पदार्थ में यह वही है, दूसरा नहीं - ऐसे दृढ़ ज्ञान को अवाय कहते हैं; जैसे कि - वे ठाकुरदासजी ही हैं, दूसरा कोई नहीं ।
अवाय से जाने हुए पदार्थ में संशय तो नहीं होता, किन्तु विस्मरण हो जाता है।
(4) धारणा - जिस ज्ञान से जाने हुए पदार्थ में कालान्तर में संशय तथा विस्मरण न हो, उसे धारणा कहते हैं ।
प्रश्न 61
• आत्मा के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का क्या स्वरूप है ?
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उत्तर - जीव को अनादि काल से अपने स्वरूप की भ्रमणा है, इसलिए प्रथम आत्मज्ञानी पुरुष से आत्मा का स्वरूप सुनकर युक्ति द्वारा आत्मा ज्ञानस्वभावी है - ऐसा निर्णय करना चाहिए.... फिर परपदार्थ की प्रसिद्धि के कारणरूप जो इन्द्रिय तथा मन द्वारा प्रवर्तित बुद्धि, उसे मर्यादा में लाकर अर्थात् परपदार्थों की ओर से अपना लक्ष्य हटाकर आत्मा जब स्वयं स्वसन्मुख लक्ष्य करता है, तब प्रथम सामान्य स्थूलरूप से आत्मा सम्बन्धी ज्ञान हुआ। वह अवग्रह; पश्चात् विचार के निर्णय की ओर ढला, वह ईहा :
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'आत्मा का स्वरूप ऐसा ही है अन्यथा नहीं' - ऐसा स्पष्ट निर्णय
हुआ, वह अवाय; और निर्णय किये हुए आत्मा के बोध को दृढ़तारूप से धारण कर रखना, वह धारणा । यहाँ तक तो परोक्ष ऐसे मतिज्ञान में धारणा तक का अन्तिम भेद हुआ । फिर - यह