Book Title: Jain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 394
________________ 394 प्रकरण दसवाँ ग्यारहवाँ उपशान्तमोह गुणस्थान आत्मा के पुरुषार्थ से प्रगट हो, तब चारित्रमोहनीय कर्म का स्वयं का उपशम होता है, इसलिए ग्यारहवें गुणस्थान में औपशमिकभाव होता है । यद्यपि यहाँ चारित्रमोहनीय कर्म का पूर्णतया उपशम हो गया है, तथापि योग का सद्भाव होने से पूर्ण चारित्र नहीं है, क्योंकि सम्यक्चारित्र के लक्षण में योग और कषायादि के अभाव से पूर्ण सम्यक् चारित्र होता है । बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान आत्मा के पुरुषार्थ से प्रगट हो, तब चारित्रमोहनीय कर्म का स्वयं क्षय होता है; इसलिए यहाँ क्षायिकभाव होता है। इस गुणस्थान में भी ग्यारहवें गुणस्थान की भाँति सम्यक्चारित्र की पूर्णता नहीं है । सम्यग्ज्ञान यद्यपि चौथे गुणस्थान में ही प्रगट हो जाता है। भावार्थ - यद्यपि आत्मा के ज्ञानगुण का विकास अनादि काल से प्रवाहरूप चल रहा है, तथापि मिथ्या मान्यता के कारण वह ज्ञान मिथ्यारूप था, किन्तु चौथे गुणस्थान में जब निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ, तब वही आत्मा की ज्ञानपर्याय सम्यग्ज्ञान कहलाने लगी और पञ्चमादि गुणस्थानों में तपश्चरणादि के निमित्त के सम्बन्ध से अवधि, मन:पर्ययज्ञान भी किसी-किसी जीव के प्रगट हो जाते हैं; तथापि केवलज्ञान हुए बिना सम्यग्ज्ञान की पूर्णता नहीं हो सकती; इसलिए बारहवें गुणस्थान तक यद्यपि सम्यग्दर्शन की पूर्णता हो गई है (क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व के बिना बारहवें गुणस्थान में नहीं पहुँचा जा सकता ), तथापि सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र गुण अभी तक अपूर्ण हैं, इसलिए अभी तक मोक्ष

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