Book Title: Jain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 392
________________ 392 प्रकरण दसवाँ उन गुणों की पर्यायों की शुद्धता भी बढ़ते-बढ़ते अन्त में पूर्ण एकता होती है। प्रश्न 84 – गुणस्थान किसे कहते हैं ? उत्तर - मोह और योग के निमित्त से होनेवाली आत्मा के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र गुणों की अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। (गोम्मटरसार जीवकाण्ड, गाथा 2 की टीका) प्रश्न 85 - गुणस्थान के कितने भेद हैं ? उत्तर - चौदह भेद हैं - (1) मिथ्यात्व, (2) सासादन, (3) मिश्र, (4) अविरत सम्यग्दृष्टि, (5) देशविरत, (6) प्रमत्तविरत, (7) अप्रमत्त विरत, (8) अपूर्वकरण, (9) अनिवृत्ति करण, (10) सूक्ष्मसाम्पराय, (11) उपशान्तमोह, (12) क्षीणमोह, (13) सयोग केवली, (14) अयोग केवली। प्रश्न 86 - गुणस्थानों के यह नाम होने का क्या कारण है ? उत्तर - गुणस्थानों के नाम होने का कारण मोहनीय कर्म और योग है। प्रश्न 87 - किस-किस गुणस्थान का कौन निमित्त है ? उत्तर - आदि के चार गुणस्थानों को दर्शनमोहनीय कर्म का निमित्त है। पाँचवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के आठ गुणस्थानों को चारित्रमोहनीय कर्म का निमित्त है; और तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान को योग का निमित्त है। पहला मिथ्यात्व गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के निमित्त से होता है; उसमें आत्मा के परिणाम मिथ्यात्वरूप होते हैं।

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