Book Title: Jain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

View full book text
Previous | Next

Page 407
________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 407 को, सर्वज्ञदेव को या जैनशासन को नहीं मानता, वह सचमुच जैन नहीं है। देखो भाई! आत्मा का स्वभाव ही 'सर्वज्ञ' है। सर्वज्ञशक्ति समस्त आत्माओं में भरी है। सर्वज्ञ' अर्थात् सबको जाननेवाला। सर्व को जाने - ऐसा महान महिमावन्त अपना स्वभाव है; उसे अन्यरूप । विकारी स्वरूप मान लेना, वह आत्मा की बड़ी हिंसा है। आत्मा महान भगवान है, उसकी महानता के यह गीत गाये जा रहे हैं। भाई रे ! तू सर्व का 'ज्ञ' अर्थात् ज्ञाता है, किन्तु पर में फेरफार करनेवाला तू नहीं है। जहाँ प्रत्येक वस्तु भिन्न है, वहाँ भिन्न वस्तु का तू क्या करेगा? तू स्वतन्त्र और वह भी स्वतन्त्र। अहो! ऐसी स्वतन्त्रता की प्रतीति में अकेली वीतरागता है। 'अनेकान्त' अर्थात् मैं अपने ज्ञानतत्त्वरूप हूँ और पररूप से नहीं हूँ - ऐसा निश्चय करते ही जीव स्वतत्त्व में रह गया और अनन्त परतत्त्वों से उदासीनता हो गयी। इस प्रकार अनेकान्त में वीतरागता आ जाती है। ज्ञानतत्त्व की प्रतीति के बिना पर की ओर से सच्ची उदासीनता नहीं होती। __ स्व-पर के भेदज्ञान बिना वीतरागता नहीं होती। ज्ञानतत्त्व से च्युत होकर 'मैं पर का कर्ता हूँ' - ऐसा मानना एकान्त है; उसमें मिथ्यात्व और राग-द्वेष भरे हैं; वही संसार भ्रमण का मूल है। _ 'मैं ज्ञानरूप हूँ और पररूप नहीं हूँ' - ऐसे अनेकान्त में भेदज्ञान और वीतरागता है, वही मोक्षमार्ग है और परम अमृत है। जगत् में स्व और पर सभी तत्त्व निज-निजस्वरूप से सत् हैं; आत्मा का स्वभाव उन्हें जानने का है, तथापि 'मैं पर को बदलता हूँ'

Loading...

Page Navigation
1 ... 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419