Book Title: Jain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 410
________________ 410 परिशिष्ट-1: सर्वज्ञता की महिमा के क्रम को आगे-पीछे करके भविष्य में होनेवाली पर्याय को वर्तमान में लाये - ऐसा नहीं हो सकता। श्री आचार्यदेव, सर्वज्ञत्वशक्ति की पहिचान कराते हैं कि हे जीव! तेरे ज्ञान का कार्य तो मात्र ‘जानना ही है; राग-द्वेष करना तो तेरा स्वरूप नहीं है और अपूर्ण जाननेरूप परिणमित हो - ऐसा भी तेरे ज्ञान का मल स्वरूप नहीं है, सबको जाननेरूप परिणमें - ऐसी तेरे ज्ञान की पूर्ण सामर्थ्य है। ऐसी अपनी ज्ञानशक्ति को पहिचान तो सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान होकर अपूर्व आनन्द का अनुभव होगा। मेरे आत्मा में सर्वज्ञत्वशक्ति है - ऐसा जिसने स्वीकार किया, उसने अपने स्वभाव में राग-द्वेष का अभाव भी स्वीकार किया, क्योंकि जहाँ सर्वज्ञता हो, वहाँ राग-द्वेष नहीं होते और जहाँ राग-द्वेष हों, वहाँ सर्वज्ञता नहीं होती। इसलिए सर्वज्ञ-स्वभाव को स्वीकार करनेवाला कभी राग-द्वेष से लाभ नहीं मान सकता; और राग-द्वेष से लाभ माननेवाला सर्वज्ञस्वभाव को स्वीकार नहीं कर सकता। ज्ञानी कहते हैं कि तिनके के टुकड़े करने की शक्ति भी हम नहीं रखते - इसका आशय यह है कि हम तो जायक हैं: एक परमाणुमात्र को भी बदलने का कर्तृत्व हम नहीं मानते। तिनके के दो टुकड़े हों, उसे करने की शक्ति हमारी या किसी आत्मा की नहीं है, किन्तु जानने की शक्ति है और वह भी इतना ही जानने की नहीं, किन्तु परिपूर्ण जानने की शक्ति है। ___जो जीव अपने ज्ञान की पूर्ण जानने की शक्ति माने तथा उसी का आदर और महिमा करे, वह जीव अपूर्णदशा को या राग को अपना स्वरूप नहीं मानता तथा उसका आदर और महिमा नहीं करता; इसलिए उसे ज्ञान के विकास का अहङ्कार कहाँ से होगा? जहाँ पूर्ण स्वभाव का आदर है, वहाँ अल्प ज्ञान का अहङ्कार होता ही नहीं है।

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