Book Title: Jain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 417
________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 417 शङ्का - उच्च उपदेश का स्वरूप निचलीदशावालों को भासित नहीं होता। समाधान - अन्य (अन्यत्र) तो अनेक प्रकार की चतुराई जानता है और यहाँ मूर्खता प्रगट करता है, वह योग्य नहीं है। अभ्यास करने से स्वरूप बराबर भासित होता है, तथा अपनी बुद्धि अनुसार थोड़ा-बहुत भासित होता है, किन्तु सर्वथा निरुद्यमी होने का पोषण करें यह तो जिनमार्ग द्वेषी होने जैसा है। शङ्का - यह काल निकृष्ट (हलका) है इसलिए उत्कृष्ट अध्यात्म के उपदेश की मुख्यता करना योग्य नहीं है। समाधान - यह काल साक्षात् मोक्ष होने की अपेक्षा से निकृष्ट है, किन्तु आत्मानुभवादि द्वारा सम्यक्त्वादि होने का इस काल में इंकार नहीं है; इसलिए आत्मानुभवादि के हेतु द्रव्यानुयोग का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित 'मोक्षपाहुड़' में कहा है कि - अज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं। लोयंतियदेवत्तं तत्त्थ चुआ णिध्वुदिं निव्वणुदि जंति॥ अर्थात् - आज श्री त्रिरत्न द्वारा शुद्ध आत्मा को ध्याकर इन्द्रपना प्राप्त करते हैं; लौकान्तिक (स्वर्ग) में देवत्व प्राप्त करते हैं और वहाँ से चयकर (मनुष्य होकर) मोक्ष जाते हैं। ___ इसलिए इस काल में भी द्रव्यानुयोग का उपदेश मुख्य आवश्यक है। प्रथम द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान कर सम्यग्दृष्टि होना, ऐसे मुख्यता से नीचे की दशा में ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है। ( श्री मोक्षमार्गप्रकाशक, आठवाँ अध्याय)

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