Book Title: Jain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 414
________________ 414 परिशिष्ट-1 : सर्वज्ञता की महिमा है, उस जीव की विषयों में से सुखबुद्धि दूर नहीं हुई है; इसलिए अन्तर्मुख स्वभावबुद्धि नहीं हुई है। स्वभावबद्धिवाला धर्मी जीव ऐसा जानता है कि मस्तक काटनेवाला कसाई और दिव्यध्वनि सुनानेवाले वीतरागदेव - दोनों मेरे ज्ञान के ज्ञेय हैं; उन ज्ञेयों के कारण मुझे कोई हानि या लाभ नहीं है तथा उनके कारण में उन्हें नहीं जानना। राग-द्वेष के बिना समस्त ज्ञेयों को जान लेने की सर्वज्ञशक्ति मुझमें भरी है। कदाचित् अस्थिरता का विकल्प आ जाए, तथापि धर्मों की ऐसी श्रद्धा कभी नहीं हटती। अपने जिस पूर्णस्वभाव को प्रतीति में लिया है, उसी के अवलम्बन के बल से अल्प काल में धर्मी को पूर्ण सर्वज्ञता विकसित हो जाती है। जय हो उस सर्वज्ञता की और उसके साधक सन्तों की! [आत्मधर्म गुजराती, वर्ष 10 अङ्क 120 से ]

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