Book Title: Jain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 324
________________ 324 प्रकरण आठवाँ व्यवहारनय होता ही नहीं। जिसके अभिप्राय में व्यवहारनय का आश्रय हो, उसे तो निश्चयनय रहा ही नहीं क्योंकि उसका जो व्यवहारनय है, वही निश्चयनय हो गया। चारों अनुयोगों में कभी व्यवहारनय को मुख्य करके कथन किया जाता है और कभी निश्चयनय को मुख्य करके कथन किया जाता है, किन्तु उस प्रत्येक अनुयोग में कथन का सार एक ही है, और वह यह है कि निश्चयनय तथा व्यवहारनय दोनों जानने योग्य हैं, किन्तु शुद्धता के लिए आश्रय करने योग्य एक निश्चयनय ही है; व्यवहारनय कभी भी आश्रय करने योग्य नहीं है; वह सदैव हेय ही है - ऐसा जानना। निश्चयनय का आश्रय करना - उसका अर्थ यह है कि निश्चयनय के विषयभूत आत्मा के त्रिकाली चैतन्यस्वरूप का आश्रय करना और व्यवहारनय का आश्रय छोड़ना - उसे हेय समझना, उसका अर्थ यह है कि व्यवहारनय के विषयरूप विकल्प, परद्रव्य या स्वद्रव्य की अधूरी दशा की ओर का आश्रय छोड़ना। ....किसी समय निश्चयनय आदरणीय है और कभी व्यवहारनय - ऐसा मानना भूल है। त्रिकाल एक निश्चयनय के आश्रय से ही धर्म प्रगट होता है - ऐसा समझना। (स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट प्र० मोक्षशास्त्र, अन्तिम अध्याय के बाद का परिशिष्ट 1) प्रश्न 64 - मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव के धर्म सम्बन्धी व्यवहार में क्या अन्तर है? उत्तर - (1) ...मूढ़ जीव आगम पद्धति को व्यवहार और अध्यात्म पद्धति को निश्चय कहते हैं, इसलिए वे आगम अङ्ग को

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