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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
शब्दरूप परिणमित होती है, उस समय जीव की इच्छा अथवा योग हो तो वह निमित्तमात्र है।
प्रश्न 86 - शब्द को आकाश का गुण माना जाए तो क्या दोष आयेगा?
उत्तर - शब्द, मूर्तिक पुद्गलद्रव्य की पर्याय है और आकाश अमूर्तिक द्रव्य है, इसलिए वह अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है, क्योंकि '...गुण-गुणी को अभिन्न प्रदेशपना होने के कारण वे (गुणगुणी) एक वेदन द्वारा वेद्य होने से अमूर्त द्रव्य को भी श्रवणेन्द्रिय के विषयभूतपना आ जायेगा।' (श्री प्रवचनसार, गाथा 132 की टीका)
'नैयायिक, शब्द को आकाश का गुण मानते हैं, किन्तु वह मान्यता अप्रमाण है । गुण-गुणी के प्रदेश अभिन्न होते हैं, इसलिए जिस इन्द्रिय से गुण ज्ञात हो, उसी इन्द्रिय से गुणी भी ज्ञात होना चाहिए। शब्द, कर्णेन्द्रिय से ज्ञात होते हैं, इसलिए आकाश भी कर्णेन्द्रिय द्वारा ज्ञात होना चाहिए किन्त आकाश तो किसी इन्द्रिय द्वारा ज्ञात नहीं होता, इसलिए शब्द, आकाशादि अमूर्तिक द्रव्यों का गुण नहीं है।'
(श्री प्रवचनसार, गाथा 132 का फुटनोट) प्रश्न 87 - (1) जीभ द्वारा शब्द (वाणी) बोले जाते हैं ? (2) क्या वे जीव की इच्छा से बोले जाते हैं ?
उत्तर - (1) नहीं, क्योंकि जीभ आहारवर्गणा में से बनती है और शब्द (वाणी) की रचना भाषावर्गणा में से होती है। आहारवर्गणा और भाषावर्गणा के बीच अन्योन्याभाव है; इसलिए जीभ द्वारा वाणी नहीं बोली जाती।
(2) नहीं; क्योंकि जीव और वाणी के बीच अत्यन्ताभाव है।