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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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4. जो (पर्यायें) अद्यापि उत्पन्न नहीं हुई है, तथा जो उत्पन्न होकर विलय को प्राप्त हो गयी हैं, वे (पर्यायें) वास्तव में अविद्यमान होने पर भी, ज्ञान के प्रति नियत होने से (ज्ञान में निश्चित् स्थिर-चिपके होने से, ज्ञान में सीधे ज्ञात होने से) ज्ञान-प्रत्यक्ष वर्तते हुए, पत्थर के स्तम्भ में अङ्कित भूत और भविष्यकालीन देवों की (तीर्थङ्करदेवों की) भाँति अपना स्वरूप अकम्परूप से (ज्ञान को) अर्पित करती हुई, (वे पर्यायें) विद्यमान ही हैं।
(श्री प्रवचनसार, गाथा 38 की टीका) 5. 'क्षायिकज्ञान वास्तव में (सचमच) एक ही समय में सर्वतः (सर्व आत्मप्रदेश से), तत्काल वर्तते हुए अथवा अतीत, अनागत काल में वर्तते हुए उन समस्त पदार्थों को जानता है कि जिनमें पृथक्प वर्तते हुए स्वलक्षणोंरूप लक्ष्मी (द्रव्य के भिन्नभिन्न प्रवर्तमान ऐसे निज-निज लक्षण. वह द्रव्यों की लक्ष्मी) से आलोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र्य प्रगट हुआ है... उन्हें जानता है। क्षायिकज्ञान अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप से जानता है।)'
(श्री प्रवचनसार, गाथा 47 की टीका) 6. 'जो एक ही साथ (युगपत) त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ (तीनों काल और तीनों लोक के) पदार्थों को नहीं जानता, उसे पर्यायसहित एक द्रव्य भी जानना शक्य नहीं है।'
(श्री प्रवचनसार, गाथा 48 की टीका) 7. '...एक ज्ञायकभाव का सर्व ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, क्रमशः प्रवर्तित अनन्त भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्यायसमूहवाले, अगाधस्वभाव और गम्भीर, ऐसे समस्त द्रव्यमात्र