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प्रकरण पहला
(6) इस सूत्र में सत् का अनेकान्तपना बतलाया है । यद्यपि त्रिकाल अपेक्षा से सत् ‘ध्रुव' है, तथापि प्रति समय नवीन पर्याय उत्पन्न होती है और पुरानी पर्याय व्यय को प्राप्त होती है, अर्थात् द्रव्य में समा जाती है; वर्तमान काल की अपेक्षा अभावरूप होती है । इस प्रकार कथञ्चित् नित्यपना और कथञ्चित् अनित्यपना - वह द्रव्य का अनेकान्तपना है।
(मोक्षशास्त्र (हिन्दी), अध्याय 5, सूत्र 30 की टीका)
(7) इस सूत्र में पर्याय का भी अनेकान्तपना बतलाया है । उत्पाद, वह अस्तिरूप पर्याय है और व्यय, वह नास्तिरूप पर्याय है। अपनी पर्याय अपने से होती है और पर से नहीं होती - ऐसा 'उत्पाद' से बतलाया है। अपनी पर्याय की नास्ति - (अभाव) भी अपने से ही होती है, पर से नहीं होती । 'प्रत्येक द्रव्य का उत्पाद और व्यय स्वतन्त्र उस-उस द्रव्य से है ।' ऐसा बतलाकर द्रव्य, गुण तथा पर्याय की स्वतन्त्रता प्रगट की - पर का असहायकपना बतलाया है । ' (मोक्षशास्त्र (हिन्दी), अध्याय 5, सूत्र 30 की टीका -प्रकाशक जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़)
(8) धर्म (शुद्धता) आत्मा में द्रव्यरूप से त्रिकाल भरपूर है; अनादि से जीव की पर्यायरूप में धर्म प्रगट नहीं हुआ, किन्तु जब जीव, पर्याय में धर्म व्यक्त करे, तब वह व्यक्त होता है। इस प्रकार 'उत्पाद' शब्द का उपयोग करके बतलाया और उसी समय विकार का व्यय होता है - ऐसा 'व्यय' शब्द का भी उपयोग कर दिखाया है । वह अविकारीभाव प्रगट होने का और विकारीभाव जाने का लाभ, त्रिकाल स्थायी रहनेवाले ऐसे ध्रुव द्रव्य को प्राप्त होता है इस प्रकार 'ध्रौव्य' शब्द को अन्तिम रखा ।
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(मोक्षशास्त्र (हिन्दी), अध्याय 5, सूत्र 30 की टीका)