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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
- इसी प्रकार यद्यपि द्रव्य, गुण-पर्यायवाला अथवा गुण और पर्यायों के समुदायमात्र प्राप्त होता है, तथापि कुछ आचार्य गुणों के समुदाय को द्रव्य कहते हैं । इस लक्षण में विविध अवस्थाओं की अविवक्षा करके (गौण करके) यह कथन किया गया है; इसलिए उसे पूर्वोक्त लक्षण का विरोधी न मानकर उसका पूरक ही मानना चाहिए।
तथापि गुण पर्यायोंवाला अथवा गुणवाला द्रव्य है - ऐसा कथन करने से गुण और पर्याय भिन्न प्रतीत होते हैं और द्रव्य भिन्न प्रतीत होता है; इसलिए इस दोष के निवारणार्थ कुछ आचार्य, द्रव्य का लक्षण समगुणपर्याय कहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि देश, देशांश तथा गुण और गुणांश - यह पृथक्-पृथक् न होकर परस्पर (एक-दूसरे से) अभिन्न है। इनमें से किसी को भी पृथक् करना शक्य नहीं है। जिस प्रकार - वृक्ष तना, डाल, आदिरूप होता है, उसी प्रकार देश, देशांश, गुण और गुणांशमय द्रव्य है... पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से गुण, गुणांश आदि को पृथक्-पृथक् कहा जाता है, किन्तु द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से एक अखण्ड द्रव्य ही है... (पञ्चाध्यायी, अध्याय-1, गाथा 72 से 74 तक के विशेषार्थ
में से। पण्डित फूलचन्दजी सम्पादित हिन्दी आवृत्ति से) (2) 'मोक्षशास्त्र' अध्याय - 5, सूत्र - 29-30 में कहे गये लक्षण से यह लक्षण (गुणपर्यायवत् द्रव्यम्) भिन्न नहीं है, शब्दभेद है, किन्तु भावभेद नहीं है। पर्याय से उत्पाद-व्यय की और गुण से ध्रौव्य की प्रतीति हो जाती है।
गुण को अन्वय, सहवर्तीपर्याय अथवा अक्रमवर्तीपर्याय भी कहते हैं; तथा पर्याय को व्यतिरेकी अथवा क्रमवर्ती कहते हैं।