Book Title: Jain Siddhant Digdarshan Author(s): Nyayavijay Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain View full book textPage 4
________________ 'जैन ' का अर्थ और तत्त्वोपन्यास आज मैं एक ऐसे धर्म पर कुछ कहने को प्रवृत्त हुआ हूँ, जिसकी प्राचीनता एवं पवित्रता को जगतभर के पुरातत्वविशारदों ने स्वीकार किया है / उस धर्म का अभिधान [ नाम ] ही यह बतला रहा है कि उसका मुख्य और अन्तिम ध्येय क्या है ? 'जैन' शब्द 'जिन' पर से बना है; और 'जिन' शब्द 'जि' धातु से निकला है। 'जि' धातु का अर्थ है- जीतना -To Conquer / अतएव ' जिन ' का अर्थ हुआ-रागद्वेषादि दोषों का विजेता, समग्र कषायों (Passions) का विजेता, आत्मा के आवरणभूत समस्त कार्मिक बलों का विजेता / यही परम आत्मा परमात्मा है और इसका बताया हुआ मार्ग-मंगलसाधक मार्ग 'जैन धर्म ' कहलाता है / जैन धर्म की इस व्युत्पत्ति से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा की परम मुक्ति एवं उसका मार्ग बताना यही उसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। इसी मुख्य सिद्धान्त पर उसके मूलभूत शास्त्रों [ आगमों ] में बड़ी सूक्ष्मता, बड़ी विशदता और बड़े विस्तार से महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन किया गया है। उसने दो तत्त्व माने हैं:-चेतन और जड़-Animate and inanimatePage Navigation
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