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जैन-समाजका हास क्यों ?
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anAmramanananmun
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कुछ भी विलम्ब न होगा । अर्थशास्त्रियोंको संसारको इस बढ़ती हुई जनसंख्यासे जितनी चिन्ता हो रही है, उतनी ही हमें घटती हुई जैन-जनसंख्यासे निराशा उत्पन्नहो रही है । भारतवर्षकी जन-संख्याके निम्न अंक इस बातके साक्षी हैं :भारतवर्षकी सम्पूर्ण जन-संख्या
केवल जैन-जन-संख्यासन् १८८१ २५३८६६३३० सन् १८६१ २८७३१४६७१
१४१६६३८ सन् १६०१ २६४३ ६१०५६
१३३४१४० सन् १९११ ३१५१ ५६३६६
१२४८१८२ सन् १६२१ ३२८६ ४२४८०
११७८५६६ सन् १६३१ ३५२८ ३७७७८
१२५१३४० उक्त अङ्कोंसे प्रकट होता है कि इन ४०वर्षों में भारतकी जन-संख्या ६८६४१४४८ बढ़ी । जबकि इन्हीं ४० वर्षो में ब्रिटिश-जर्मन युद्ध, प्लेग, इन्फ्लूएंझा, तूफान, भूकम्प-ज़लज़ले बाढ़ वगैरहमें ८-९ करोड़ भारतवासी स्वर्गस्थ होगये, तब भी उनकी जन-संख्या १० करोड़के लगभग बढ़ी।
और यदि इन असामयिक मृतकोंकी ८-९ करोड़ संख्या भी जोडली जाय तो. ४० वर्षों में भारतवर्षकी जन-संख्या १२ (पौने दो गुणी) बढ़ी ।
और इसी हिसाबसे जैन जन-संख्या भी सन् ३३ में १५ लाखसे बढ़कर पौने दोगुणी सवा २६ लाख होनी चाहिये थी, किन्तु वह पौने दोगुणी होना तो दूर, मूल से भी घटकर पौनी रह गई ! . तब क्या जैनी ही सबके सब लाम पर चले गये थे ? इन्हींको चुनचुनकर प्लेग अादि बीमारियोंने चट कर लिया ? इन्हींको बाढ़ बहा ले